मातृभाषा दिवस पुत्र तर्क-वितर्कों में मस्त, मां एक कोने में बेबस!

आज मातृभाषा दिवस अर्थात 21 फरवरी नियत तिथि! किंतु कैसे भूल सकते हैं नियति की वह परिणति जो इसी माह की सातवीं तिथि को ऋषिगंगा घाटी में ग्लेशियर टूटने के बाद घटित हुई। और…… रैणी तपोवन में हमारे हिस्से में आंसूओं का न थमने वाला सैलाब छोड़ गई। किसी ने पुत्र खोया- किसी ने पति – किसी ने सगा भाई ! किंतु थे तो वे सभी मां के लाल ही!! और हां! वे पालतू मवेशी भी जिनपर कई परिवारों की रोजी रोटी टिकी हुई थी उनको भी विपदा लील गई। हर बार विपदा में हमें ढांढस बंधाने वाले यही कहते है कि ‘हिम्मत रखिए!! पहाड़ विकट परिस्थितियों में भी नहीं झुकते!!’ लेकिन ये कौन कहे कि मां का हृदय पत्थर का नहीं है।

आज कि तिथि को जो पर्वप्रिय मित्र पर्व के रूप में मना रहे हैं वे बधाई स्वीकार करें! किंतु सत्य कहें हम आज की तिथि में इसे पर्व के रूप में मनाने की स्थिति में कदापि नहीं हैं। क्योंकि इस मातृभाषा दिवस पर हमारी तमाम संवेदनाएं उन माताओं के साथ हैं जिन्होंने रैणी तपोवन त्रासदी में अपने लाल खो दिये हैं अथवा जिन माताओं के लाल अभी भी गुमशुदा ही हैं!

कुछ ऐसे कलमकार मित्र भी हैं जिन्हें पढ़कर लगता है कि मानवीय संवेदनाएं अभी भी जिंदा है मरी नहीं है। यत्र-तत्र ऐसे ही मित्रों की और भी भावनाएं हो सकती हैं जिन तक नजर नहीं पहुंची है। किंतु इन पंक्तियों को पढ़कर लगता है कि हमारा समाज अभी इतना संज्ञा शून्य भी नहीं है। इससे भी कोई फरक नहीं पड़ता की आपकी मातृभाषा पंजाबी है , कुमाउनी है अथवा गढ़वाली है।

ऐसे ही एक विद्धत कलमकार हैं- प्रेम साहिल जी! आपकी मातृभूमि और मातृभाषा भले ही पंजाबी है लेकिन पहाड़ की भाव भूमि से आपका लगाव अपनी मातृभूमि से जरा भी कमतर नहीं है। आपने पहाडी नारी का कठोर संघर्ष, पहाड़ और नदी की हलचल भी करीब से देखी है। इसीलिए यह त्रासदी आपने अपनी वाॅल पर कुछ यूं उकेरी है –

हर मां हो जैसे आत्मा… दुखते पहाड़ की/चुप की बनी तसवीर हो चुप को पछाड़ती
है खा गयी मांओ के सुत आफत की शेरनी/देखी-सुनी ना जो कभी…आयी दहाड़ती।

– ‘सिसकियां थम नहीं रही। मलबे से शव निकलने ही मानव झुंड चिपट पड़ते हैं। जनाब अपनों की लाश पहचानने को।’ -ये मार्मिक शब्द भ्राता मुकेश सेमवाल की वाॅल पर पढ़े जा सकते हैं।

– ‘जिनको अपने के साथ अनहोनी की सूचना मिल चुकी, उनमें से एक को सड़क पर ही बिलखते हुए देखना दुख ओर असहाय होने का भाव पैदा करता है।‘ – ‘अपनों के लापता होने का दर्द झेल रहे लोगों को देख पीड़ा और अवसाद से रेसक्यू कैसे होगा। कौन जाने?’ – अनुज इन्द्रेश मैखुरी की वाॅल पर ये पंक्तियां भी ध्यान खींचती हैं।

मनमीत की वाॅल पर भी साफ-साफ लिखा पढ़ा जा सकता है। मनमीत ने लिखा है- ‘रैणी गांव का ही मनजीत अपने घर में इकलौता कमाने वाला था। वो भी बांध में ही काम करता था। उसके पिता विकलांग हैं और भाई मानसिक विकलांग। सबकी जिम्मेदारी उसके कंधों पर थी। अब वो भी नहीं रहा। उसकी मां उसे तलाशने आई हुई थी। बस इतना ही बोली कि अभी वो बीस साल का था। दुनिया भी नहीं देखी थी उसने। ’

वहीं शीशुपाल गुसाईं की वाॅल पर शब्द चस्पा हैं- ‘किसी भी मां के लिए बेटे की ऐसी मौत देना न बीमार, न रैबार ! दुख तो देती ही है। गहरा सदमा भी पहुंचाती है।’ – ‘आलम पुंडीर की वृद्ध मां घटना के बाद न रो सकती है न कुछ कह सकती है।’

भ्राता जगमोहन रौतेला के ये शब्द मात्र भावुकता में ही नहीं लिखे गये हैं इन शब्दों के भी कुछ मायने हैं। जगमोहन लिखते हैं- ‘तपोवन में परिजनों की आंख से आंसू अभी थमे नहीं पर्यटन मंत्री महाराज को पर्यटकों को बुलाने की पड़ी है। यह तो मौत में जश्न मनाना हुआ।’

हालात आज भी वही हैं। वहां क्या! यहां भी वहीं हैं! जमे हुये मलबे और कीचड़ में हमें उम्मीद भी नहीं है।
– साहित्यकार आदरणीय नरेन्द्र कठैत जी की फेसबुक वॉल से

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