‘ब्याळि’ अर ‘भोळ’ गढ़वाली भाषा के दो शब्द हिन्दी भाषा के लिए!

कल ! आगत या विगत? आगे शब्द जोड़ना ही होगा। कह नहीं सकते कि यह हिन्दी भाषा की कमजोरी है लेकिन प्रश्न की तुष्टि के लिए शब्द जोड़ना जरूरी है। किंतु हिन्दी की इस कमजोरी का तात्पर्य यह नहीं कि उसकी सहयोगी भाषाओं में संदर्भित शब्दों की कमी है।
मालूम नहीें हिन्दी की अन्य सहयोगी मान्यता प्राप्त भाषायें हिन्दी के इस ‘कल’ शब्द की समस्या पूर्ति के लिए सक्षम हैं या नहीं किंतु गढ़वाली भाषा में इसके लिए दो पृथक-पृथक शब्द न केवल आम बोलचाल की भाषा में सदियों से प्रयोग किये जाते रहे हैं बल्कि हमारे दिवंगत साहित्यकारों ने हिंदी के हितार्थ इन शब्दों का उल्लेख भी किया है।
गढ़वाली भाषा के स्वर्णिम काल ‘पांथरी युग’ की एक पुस्तक में इस बात का स्पष्ट उल्लेख सामने आया है। गढ़वाली भाषा के इसी युग के काल खण्ड (1939 से 1954) तक गढ़वाली भाषा की 39 पुस्तकों के छापे जाने का उल्लेख मिलता है। इसी काल खण्ड की एक पुस्तक का नाम है- गढ़व़ाली का निबंध। निबंध का शीर्षक है-गढ़वाली बोली-भाषा, रचनाकार – विश्वम्भरदत्त चंदोला, संपादक- आचार्य गोपेश्वर कोठियाल, प्रकाशक-
गढ़वाली जन-साहित्य परिषद, प्रकाशन वर्ष- 1957, मूल्य- आठ आने!
पुस्तक में अपने निबंध में विश्वम्भरदत्त चंदोला जी ने स्पष्ठ लिखा है-
‘‘गढ़वाली भाषा का ‘व्याले’ अर ‘भोल’ ( ऋगवेद का ‘व्यय’ अर ’भव्य’) इना शब्द छन जो एक दिन हिन्दी का ‘कल’ शब्द की समस्या सणे हल करला। ‘कल गया था’ या‘ कल जाऊंगा’ बिना इनो बोल्यां कल को अर्थ नीं निकल सक्दो। वर्तमान राष्ट्र भाषा हिन्दी मा ‘भोल’ अर ’ व्याले’ को उपयोग बोलन-लिखण मा करनो हिन्दी भाषा का हितार्थ आवश्यक छ।’’
जिसका भावार्थ है ‘‘ गढ़वाली भाषा के ‘व्याळेे’ और ‘भोळ’( ऋगवेद के ‘व्यय’ अर ’भव्य’) ऐसे शब्द हैं जो एक दिन हिन्दी के ‘कल’ शब्द की समस्या को हल करेंगे।
‘कल गया था’ या ‘कल जाऊंगा’ बिना कहे कल का अर्थ नहीं निकल सकता। वर्तमान राष्ट्र भाषा हिन्दी में ‘भोळ’ और ‘व्याळे’ का उपयोग बोलने -लिखने में करना हिन्दी के हितार्थ आवश्यक है।’’
हिंदी भाषी विद्धतजन हिन्दी भाषा की सशक्तता एंव अभिवृद्धि के लिए मात्र आठ आने में छपी इस पुस्तक में ‘कल’! आगत या विगत के लिए प्रयुक्त गढ़वाली के पृथक-पृथक शब्दों ‘ब्याळि’(विगत) अर ‘भोळ’ (आगत) शब्दों को स्थान देने का प्रयास करें!
साहित्यकार नरेंद्र कठैत जी की कलम से।

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