भागीरथी पर पहले बांध का डिजाइन!

(शंकर सिंह भाटिया)
प्रो.जीडी अग्रवाल जैसा चाहते थे, वैसा ही हुआ। उन्होंने अपने जीवन को गंगा को समर्पित कर दिया था और ठान ली थी कि वह गंगा की अविरल धारा के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष करते रहेंगे और गंगा पर ही अपना जीवन समर्पित कर देंगे। 111 दिन के अनशन के बाद उन्होंने गंगा को अपना जीवन समर्पित कर दिया।
केंद्र सरकार से जिस अध्यादेश लाने की मांग वह कर रहे थे, वह शायद संभव नहीं था। इसके बाद केंद्र सरकार के हाथ बंध जाते और इस स्थिति में गंगा पर कोई बांध बनाने की बात तो दूर रही, एक ईंट भी नहीं रखी जा सकती थी। स्वाभाविक है, कोई सरकार अपने हाथ खुद नहीं बांधेगी। इसलिए केंद्र सरकार इधर-उधर की बातें कर उन्हें टहला रही थी। जीडी अग्रवाल शायद यह बात समझते थे कि केंद्र सरकार यह काम कभी नहीं करेगी, इसलिए उन्होंने मन ही मन गंगा के लिए मौत को गले लगाने की ठान ली थी। जीवन के इस आखिरी पढ़ाव में मौत तो कभी अभी आनी थी, यदि मौत गंगा के लिए गले लगाई जाए तो लाखों करोड़ों लोगों की श्रद्धा के भागी बन जाएंगे।
जीडी अग्रवाल ने 2011 में सन्यास ले लिया था और अपना नाम स्वामी सानंद रख लिया था। इस तरह हिंदू धर्म के अनुसार वह जोगी हो गए थे। स्वभाव से स्वामी सानंद को काफी हठी माना जाता है। जोगी बनने के बाद तो उनमें जोठ हठ सवार हो गई थी। कहा जाता है कि राज हठ, जोग हठ, बाल हठ और त्रिया हठ एक तरह की होती है। जब उन्होंने ठान ली तो उसे करके ही दम लेते हैं। हरिद्वार के मातृ सदन में पिछले कई दिनों से अनशन में बैठे स्वामी सानंद के बारे में कई लोग कहते हैं कि उन्होंने जिद ठान ली थी कि वे गंगा के लिए अपना जीवन समर्पित कर देंगे। कुछ लोग मौत तक अनशन के लिए मातृ सदन के स्वामी शिवानंद को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका तर्क है कि मातृ सदन हरिद्वार में खनन के खिलाफ आवाज उठाता रहा है, खुद स्वामी शिवानंद कई बार अनशन पर बैठ चुके हैं, लेकिन उनका अनशन मौत के मुंह तक जाने से पहले ही समाप्त हो जाता है, जबकि स्वामी निगमानंद की अनशन के दौरान मौत हो गई थी, अब स्वामी सानंद की मौत भी हो गई है। स्वामी शिवानंद पर आरोप लगाने वालों का तर्क है कि शिवानंद अनशन पर बैठे संतों पर दबाव डालते हैं और उसका अंत मौत के रूप में होता है, जिससे देश दुनिया के सामने मांग प्रभावशाली ढंग से उभरती है।
जहां तक स्वामी सानंद/जीडी अग्रवाल का सवाल है वह आईआईटी कानपुर में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के हेड रह चुके हैं। उन्होंने सन्यास लेने से पहले 2009 में भागीरथी पर निर्माणाधीन लोहारी नागपाला, पाला मनेरी और भैरो घाटी जल विद्युत परियोजनाओं के खिलाफ आंदोलन किया था। तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, जबकि राज्य में भाजपा की सरकार थी। लालकृष्ण आडवाणी मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी को निर्देश दिए कि वह उत्तराखंड जल विद्युत निगम द्वारा निर्माणाधीन दो परियोजनाओं को निरस्त करने की घोषणा कर दें। एक परियोजना केंद्र सरकार की एजेंसी द्वारा निर्माणाधीन थी। उत्तराखंड सरकार के कार्य स्थगन की घोषणा के बाद केंद्र सरकार ने तीनों परियोजनाओं को हमेशा के लिए बंद कर देने की घोषणा कर दी। यह कार्य इतनी जल्दी हुआ कि इस बात को लेकर संसय होता है कि केंद्र सरकार का यह निर्णय जीडी अग्रवाल के अनशन के प्रतिफल मंे आया या फिर इस पर कोई और ही राजनीति काम कर रही थी। दरअसल 2009 में संसदीय चुनाव होने वाले थे। अयोध्या मामला पुराना हो गया था, भाजपा को भय था कि काठ की हांडी में फिर से दाल पक पाएगी कि नहीं, अपनी पार्टी की उत्तराखंड सरकार द्वारा भागीरथी में बन रही दो परियोजनाओं को स्थगित कर भाजपा गंगा को 2009 के चुनाव का मुद्दा बनाने की सोच रही थी कि कांग्रेस ने एक कदम आगे बढ़ते हुए तीनों परियोजनाओं को हमेशा के लिए बंद कर भाजपा से यह मुद्दा ही छीन लिया था। इसलिए भागीरथी पर इन तीन जल विद्युत परियोजनाओं को बंद करने का श्रेय जीडी अग्रवाल से अधिक भाजपा-कांग्रेस की राजनीति को जाता है।
जहां तक जीडी अग्रवाल का सवाल है गंगा के लिए अपने प्राणों की बलि देने वाले अग्रवाल का जीवन भी विरोधाभासों से भरा रहा है। बताया जाता है कि भागीरथी में ही मनेरीभाली परियोजना का डिजाइन कानपुर आईआईटी की टीम ने उनके ही नेतृत्व में तैयार किया था। मनेरी भाली परियोजना के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। भागीरथी पर पहली बड़ी परियोजना बनाने वाले इंजिनियर की देश काल परिस्थितियां बदल गई तो उन्होंने गंगा पर परियोजनाओं के खिलाफ अपने जीवन को ही समर्पित कर दिया। यह सवाल भी विचारणीय है कि आईआईटी की पढ़ाई से लेकर हेड आफ डिपार्टमेंट के तौर पर रिटायरमेंट तक कानपुर में रहने वाले प्रो.जीडी अग्रवाल ने गंगा को सबसे अधिक प्रदूषित करने वाले कानपुर पर कभी अंगुली नहीं उठाई। एक्टिव जीवन में कभी गंगा को प्रदूषणमुक्त करने लिए एक कदम नहीं बढ़ाया। यह बात अलग है कि रिटायरमेंट की जिंदगी उन्होंने गंगा को समर्पित कर दी। वरिष्ट पत्रकार शंकर सिंह भाटिया जी की वॉल से साभार

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