रामायण और महाभारत में समय समय पर कुछ अंश मिलाये और कुछ हटाये गए हैं. एक ही श्लोक कई ग्रंथों में ज्यों का त्यों मिलता है, ऐसा एक प्रसिद्ध श्लोक रामायण में अलग अलग प्रसंगों में और महाभारत में भी है जो इस प्रकार है—
सुलझा:पुरुषा: राजन, सततं प्रिय वादिन:.
अप्रियस्य च पथ्यस्य, वक्ता श्रोता च दुर्लभ:.
राजन! सदा प्रिय लगने वाली बातें कहने वाले लोग तो सुगमता से मिल जाते हैं, परन्तु सुनने में अप्रिय किन्तु परिणाम में हितकारी बातें कहने और सुनने वाले दुर्लभ होते हैं.
यह श्लोक रामायण में दो बार और महाभारत में एक बार प्रयुक्त हुआ है.
पहिला कथन मारीच द्वारा रावण को और दूसरा विभीषण द्वारा भी रावण के प्रति है.
यही श्लोक महात्मा विदुर ने धृतराष्ट्र के प्रति कहा है, परिणाम सभी जानते हैं. तीनों स्थलों में श्लोक में एक अक्षर का अन्तर नहीं.
जीवन में जब भी मैंने इस सलाह की अवहेलना की और कटु सत्य कहा तो समय समय पर मित्र खोता चला गया, नीति ग्रंथों की इस शिक्षा को भूल गया—
सत्यं ब्रूयात् प्रियंका ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्.
नानृतं प्रियंका ब्रूयात्, एष: धर्म: सनातन.
यह सनातन धर्म है कि सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए, अप्रिय सत्य को नहीं बोलना चाहिए और प्रिय लगने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिए.
आप अपने व्यवहार का चयन स्वयं कीजिये.
आदरणीय गुरुदेव, शिक्षाविद श्री प्रेम सिंह रावत जी की वॉल से साभार