गढ़वाली,हिंदी साहित्य के ज्योतिपुंज सुदामा प्रसाद ‘प्रेमी’ जी की पुण्य तिथि पर पुष्पाजंलि

वृक्ष की सबसे बृहद शाखा पर मात्र वृक्ष का ही नहीं अपितु चराचर जगत का भी विश्वास टिका होता है। जब कभी अकस्मात वृक्ष की वह वृहद शाखा, वृक्ष से विलग होती है तो वृक्ष ही नहीं सम्पूर्ण चराचर जगत भी मर्माहंत होता है। हर वक्त उस शाखा के इर्द-गिर्द अठखेलियां खाने वाली हवा बदहवास घूमती नजर आती है, तथा सदा एक सीध में बेखबर आती धूप को एकाएक औंधे मुंह गिरने के पश्चात अहसास होता है कि धरती पर उसको आसरा देने वाला कोई कंधा कम हो गया है। छोटी-छोटी शाखाओं तथा पत्तियोें में हल्का सा कंपन और उनमें लम्बी स्थिरता को देखकर ऐसा महसूस होता है कि जैसे वे विलग हुई उस शाखा की आत्मा की शान्ति के लिए बार-बार मौन धारण कर रही हों।

कुछ-कुछ ऐसा ही परिदृश्य 12 जून 2014 को गढ़वाली साहित्य के वट वृक्ष के साथ भी घटित हुआ। इसी दिन घोर गरीबी, अनगिनत दुख-दर्द, झंझावतों, घावों को अपने हृदय में समेटे एक महत्वपूर्ण शाखा हमसे विलग हो गई। यह साहित्यिक क्षतिपूर्ति असंभावी है।

स्थानीय समाचार पत्रों, जगह-जगह सम्पन्न शोक सभाओं तथा इन्टरनेट पर श्रद्धांजलि देने वालों की तादाद देखकर दिवंगत आत्मा को कितना सुकुन पहुंचा होगा इस तथ्य को परमेश्वर के सिवाय वह पुण्य आत्मा ही महसूस कर सकती है, किन्तु यह कहने में कदापि संकोच नहीं कि यदि इनमें से कोई एक संस्था या आधे साहित्य अनुरागी भी तन-तन-धन से उस आत्मा के जीवन काल में उसकी पीठ थपथपाते तो उसका साहित्य और अधिक परिष्कृत और भव्य रूप में हमारे सामने आता।

गढ़वाली साहित्य को पल्लवित, पुष्पित करने वाली यह शाखा सुदामा प्रसाद ’प्रेमी’ नाम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती आ रही थी। मध्यम कद काठी, झक सुफेद दाढ़ी, कंधों तक झुलते सुफेद बाल।

अधिकांश लोगों ने उनको इसी रूप में देखा है। लेकिन एक दिन फोन आया ‘कठैत जी मैंने बाल काट दिये हैं।’ बस ‘हूं’ में जबाब दिया। पूछा नहीं- क्यों? क्योंकि जबाब मेरे पास ही सुरक्षित था कि प्रेमी जी इस हद तक टूट चुके हैं कि उनके पास अब साबुन-तेल के भी पैसे नहीं रहे। कई बार उनके पास कागज कलम भी नहीं होते थे।

कागज का अभाव इतना कि एक मर्तबा जिस लिफाफे के साथ मैंने उन्हें पत्र भेजा, उन्होंने उसी लिफाफे की खाली जगह पर अपनी लाचारी के भाव भिजवा दिये। लिखा था ‘ प्रिय कठैत जी, लगातार कष्ट दे रहा हूं क्या करूं मेरी विवशता है’। कहने को तो वह मात्र खाली लिफाफा है लेकिन प्रेमी जी कि वह अमूल्य धरोहर आज भी मेरे पास सुरक्षित है। प्रेमी जी को मिले एक और कष्ट की विद्रुपता याद आ जाती है।

साहित्यकार के नाम पर मिलने वाली उनकी पेन्शन का प्रकरण लगभग दो साल तक धूल फांकता रहा। इस बीच वे बराबर मुझे कोसते रहे। क्योंकि सूत्रधार मैं ही था। एक पत्र में उन्होंने लिखा ‘ आप ही लोगों ने कहा कि आपकी तीन हजार रूपये साहित्यिक पेन्शन लग गई है, अब जब मैं अत्यन्त परेशान हूं तो कोई उसके बारे में कुछ बता नहीं रहा। आपके अतिरिक्त किससे सहयोग की अपेक्षा करूं? मृत्यु की कगार पर खड़ा हूं लेकिन नीचे नहीं गिर पा रहा।’ और बिडम्बना देखिए, जब उन्हें पेन्शन मिलनी शुरू हुई तो उनमें जीवित रहने की जिजीविषा ही समाप्त हो चुकी थी।

यूं तो घोर गरीबी, मानसिक यंत्रणा की कहानी प्रेमी जी केे बचपन से ही सुरू हो जाती है। उनके एक पत्र से ही उनके कष्टमय जीवन के कुछेक पहलु सामने आ जाते हैं। पत्र में उन्होंने लिखा है कि ‘मेरे लेखकीय जीवन के प्रारम्भिक तथा अन्तिम सत्रह वर्ष? ये सत्रह वर्ष चाहे अन्तिम रहे या प्रारम्भिक मेरे लिए दोनों बार कारागार जैसे कठिन रहे हैं’।

आगे लिखते हैं कि ‘मेरा जन्म 7 दिसम्बर 1927 में ज्योतिषाचार्य तर्क शिरोमणि स्व. हरिराम जी डबराल के घर ग्राम फल्दा, पट्टी- पटवालस्यूं, डाकखाना तथा विकास खण्ड- कल्जीखाल, पौड़ी गढ़वाल में हुआ।…..दुर्भाग्य यह रहा कि जब मैं मात्र तेरह वर्ष का था तभी उनका देहान्त हो गया। मेरी दो माताएं तथा विधवा चाची थी, जिनमें चाची जी बड़े चिड़चिड़े स्वभाव की लड़ाकू प्रकृति की थी, मेरी दोनों माएं अत्यन्त सीधी-साधी काम-काजी महिलाओं में आती थी, किन्तु चाची जी ने उनका जीवन नारकीय बना दिया था वह बात-बात लड़ने झगड़ने के लिए तैयार रहती थी।

उस समय पैसा बहुत कम लोगों के पास होता था, यही एक मात्र कारण था कि गरीब-निर्धन लोगों के अधिकांश काम नहीं हो पाते थे। उस समय चौथी तक पढ़ने वाले बालक को स्कूल कोे एक आना फीस देनी होती थी जिसके कारण अनेक बालकों को अपनी पढ़ाई छोड़ कर घर बैठना पढ़ता था। यही एक कारण था कि मुझे चौथी कक्षा पास कर घर के काम सम्भालने के लिए विवश होना पड़ा। इस दो तीन वर्षों तक किसी प्रकार से काम काज सम्भालता रहा। लेकिन चाची जी के लड़ाकू स्वभाव के कारण घर के काम काज छोड़ कर दिल्ली अपने जीजा जी श्रीमान गजाधर प्रसाद डोभाल की शरण में जाना पड़ा। पहले तो उन्होंने मुझे समझाया कि यहां अभी तुम्हारे लायक कोई काम-काज है ही नहीं सिवाय होटलों या घरों में बर्तन मांजने के।

घरों में या होटलों में जुठे बर्तन मांजने के लिए न जीजा जी, दीदी जी तैयार थी न मैं स्वंय ही तैयार था। बहुत कुछ सोच समझ कर जीजा जी ने अपने एक मित्र की सहायता से मुझे पे्रस में शब्द संयोजन के काम पर लगा दिया। मैंने इस काम को बड़ी मेहनत के साथ सीखा तो उन मेरे गुरू जी ने पे्रस के मालिक से कहकर दस रूपये मासिक तनख्वाह लगवा दी। दस रूपये उन दिनों बहुत होते थे, एक आदमी का मासिक खर्चा ढाई-तीन रूपये आता था। जैसे-जैसे मैं काम में मन लगाकर अच्छा काम करता वैसे ही मेरी तनख्वाह भी बढती रहती थी।’ पत्र को उन्होंने काफी विस्तार दिया है लिखा है ‘इसमें कुछ सुधार कर गढ़वाली भाषा में भी परिवर्तित कर सकते हो।’

प्रेमी जी के मात्र इन शब्दों से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रेस में शब्द संयोजन का कार्य ही उनके लेखकीय जीवन की मजबूत पाठशाला साबित हुई। प्रथम रचना का उल्लेख करते हुये लिखते हैं कि ‘सर्व प्रथम सन् 1952-53 के आस-पास पौड़ी से सूचना विभाग तथा जिला विकास कार्यालयों द्वारा एक ग्राम-पत्रिका का प्रकाशन होता था मेरी प्रथम कविता पत्रिका के मुखपृष्ट पर बाक्स में छपी थी। कविता पूरे पृष्ठ की थी, एक प्रति मेरे पास भी भेजी गई थी, किन्तु उसे उन्हीं दिनों कोई चुराकर ले गया। तब से आज तक मैं उस पत्रिका की तलाश करता रहा किन्तु अभी तक नहीं मिल पाई। अधिक समय हो जाने के कारण न मुझे कविता याद है न उसका शीर्षक ही। केवल बीच की दो लाइनें याद हैं- ‘बगत आलु ओ बी, बबरों जगली बिजली, हीटरु मा उमळलि हमारि चा की कितली।’

पुस्तकाकार रूप में सर्व प्रथम प्रेमी जी की ‘द्वी आंसू’ नामक कविता संग्रह सन् 1962 में छपकर सामने आया। संग्रह की ‘खौरि’ नामक कविता की चार पंक्तियों में जीवन की विवशता देखिये- ‘आज-आज कै, भोळ-भोळ कै, जीवन का दिन कम ह्वाया; आंसु लुकाणू रौं मी दिल मा, पर सौंण बरखदो आया!‘ ‘द्वी आंसु’ की भूमिका बांधते हुये कमल साहित्यालंकार लिखते हैं ‘श्री ‘प्रेमी’ जी के दो आंसू एक शब्द में कहा जाय तो रस गागर हैं, जिसे ढुलका कर पाठक जी चाहा उडेल सकता है।’

इसी संग्रह में प्रेमी जी कि ‘बीड़ी’ नामक कविता कुछ यूं उदृत है- ‘जुगराज रयां तुम मेरी बीड़्यूं, तुमना सैरी रात कटैनी; एक का बाद हैकी फूकी, अपणा मन का भाव जगैनी’। ‘बीड़ी’ कविता पर प्रसिद्ध चित्रकार बी. मोहन जी का शब्द चित्र भी संग्रहणीय है।

सन् 1964 में प्रेमी जी का दूसरा लघु कविता संग्रह ‘बट्वे’ छपा। बट्वे कथोपकथन शैली में लिखा गया है। कतिपय पाठकों ने इसे नृत्य नाटक की श्रेणी में रखा है। ‘अग्याळ’ नाम का काव्य संग्रह सन् 1971 प्रकाश में आया। ‘घर-बार छोड़ी की प्रवासी ह्वे ग्यां, द्वी -लांगा-फांगा छाया, वूं तैं भि ख्वे ग्यां।’ प्रवासियों की इस पीड़ा को भी इसी संग्रह में कहीं स्थान मिला है। भूमिका में साहित्यकार शिवानन्द नौटियाल लिखते हैं कि ‘प्रेमी जी गढ़वाल के आशु कवि हैं, उनके स्वरों में वहां की रोली-बौली झाड़-झंखाड़ और वेदना का गहरा रंग उमड़ता है और उनके शब्द उन रंगों को सामयिक स्वरूप देने में पूर्णतः सक्षम होते हैं।’

सन् 85 में मार्मिक कथा संग्रह ‘गैत्री की ब्वे’ पर अबोधबन्धु बहुगुणा लिखते हैं कि ‘ जिन्दगानी का दंदोळ मा फगोस्यां पहाड़ी जन-जीवन का जौं पोथ्यों मा दर्शन होंदन ‘गैत्री की ब्वे’ वूं मद्दे एक स्वाणी कृति छ।’ यूं भी नारी जीवन के विभिन्न पहलुओं ने प्रेमी जी के साहित्य में अत्यन्त मार्मिक अभिव्यक्ति पाई है। ‘गैत्री की ब्वे’ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृत रचना है। 1994 में छपा आपका लघु उपन्यास ‘नाता अर पाथा’ अभी अप्राप्त है।

सन् 2005 में ‘गढ़वाली आणा-पखाणा’ संग्रह में प्रेमी जी ने लोक जीवन में प्रयुक्त विभिन्न आणा-पखाणों का सार्थक अर्थ भी दिया है। पन्द्रह कहानियों का एक और संग्रह ‘घंघतोळ’ 2007 में प्रकाश में आया। ‘घंघतोळ’ की प्रस्तावना में डा. नन्द किशोर ढ़ौडियाल ‘अरूण’ लिखते हैं कि ‘श्री सुदामा प्रसाद प्रेमी एक इना कहानीकार कवि अर लेखक छन जौंन गढ़वाळ की धरती मा जन्म लेकि गढ़वाळ की ग्रामीण जिन्दगी नजदीक से द्याख अर शहरू का बीच जै कि भी गढ़वाळि जीवन की मिठास तैं कभी नि भूला।’

इसके साथ पंचैत, पट्वरि जी, बड़ि ब्वारि, सिणै बाजिगे, समलौंण, कन्यादान, सिंटुल्या पंचैत, दस रूप्यो नोट, कटुड़ै बाछी, अन्ध्यरा बिटि उजाळे तर्फां, हवै जाज, अनजान रिश्ता इत्यादि रचनायें प्रेमी जी की अप्रकाशित कृतियां हैं। गढ़वाली नाटक ‘कन्यादान’ पर प्रेमी जी एक स्थान पर लिखते हैं कि श्री पाराशर गौड़ और गोविन्द चमोली के निर्देशन में ‘कन्यादान’ का मंचन 1965-66 में दर्शकों ने खूब सराहा। गांधी स्मारक के पास किसी एसोसियेशन के हाल में इसका मंचन हुआ था।

प्रेमी जी ने स्वंय ही लिखा है कि ‘अन्य पत्र पत्रिकाओं में छपने वाले आलेख-कथा कहानी, कविता, संस्मरण, यात्रा वष्तांत, नाटक, झलकियां, रूपक आदि जिनमें छपते रहे उनके कुछेक नाम जो स्मरण में आ रहे है निम्न प्रकार से हैं- हिमालय की ललकार, शैलोदय, सत्यपथ, गढ़वाल मण्डल, पौड़ी टाइम्स, शैल शिखर, मैती, हिलांस, दैनिक गढ़ ऐना, घाटियों के घेरे में, धै, छुयांळ, घुघती, मण्डाण, धाद पत्रिका के प्रथम शुरूवाती कुछ अंक मेरे द्वारा छापे गये। उसका मैं प्रबन्ध संपादक रहा हूं। पंजीकरण श्री जगदीश बडोला जी ने अपनी श्रीमती सुशीला बडोला के नाम कराया था वही मुख्य सम्पादिका भी थी।’

ऐसा नहीं है कि प्रेमी जी ने मात्र गढ़वाली साहित्य में ही सृजन किया हो। हिन्दी में भी आपके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। आपकी महत्वपूर्ण हिन्दी रचनाओं में ‘अन्तर्दाह’(खण्ड काव्य), ‘कटा हुआ पेड़’(कहानी संग्रह), संकल्प’ तथा ‘एक दूसरी उत्तरा’(उपन्यास) प्रमुख हैं।

प्रेमी जी का लेखन सदैव संतुलित और मर्यादित रहा है। आपका सुन्दर हस्तलेख तो देखते ही बनता है। अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए प्रेमी जी जिन पुरस्कारों से विभूषित हुये उनमें उतर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त पिताम्बर दत्त बड़थ्वाल पुरस्कार, आदित्य नवानी पुरस्कार, उमेश डोभाल स्मृति सम्मान, हिमाद्रि रत्न सम्मान, टीका राम गौड़ पुरस्कार तथा 2010 में साहित्य एकादमी का साहित्य सम्मान प्रमुख हैं।

कहा जाता है कि वृक्ष की पुरानी शाखा नई शाखा को भविष्य में जिम्मेदारियों का बोझ उठाने के लिए प्रेरित ही नहीं बल्कि समय-समय पर उसकी परीक्षा भी लेती रहती है। 2010 में सामने आये अपने अन्तिम उपन्यास ‘एक दूसरी उत्तरा’ की पाडुलिपि को प्रेमी जी ने मुझे थमाते हुये कहा कि इस उपन्यास की भूमिका तुम्हें लिखनी है। प्रेमी जी के विश्वास और आज्ञा शिरोधार्य मानते हुये वक्त पर भाव सौंप दिये थे, किन्तु प्रेस में मानवीय भूल के कारण वह अंश छूट गया। बाद में, प्रेमी जी के अनुरोध पर कुछेक प्रतियों में बी. मोहन नेगी जी ने उस अंश को जोड़ने में अपना योगदान दिया।

घोर अभावों में साहित्य सृजन करते हुये भी प्रेमी जी, कभी भी पारिवारिक जिम्मेदारियों से विमुख या उदासीन नहीं हुये। मात्र तेतालिस साल की वय में विधुर होने पर भी पांच छोटे बच्चों की परवरिश में आपने कोई कोताही नहीं बरती। छोटे बच्चों को कभी भी मां की रिक्तता का आभास नहीं होने दिया। किन्तु 2007 में फौज में कार्यरत बड़े लड़के की अकस्मान मौत ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। इस देव विपदा पर ‘घंघतोळ’ में ‘द्वी बचन’ के अन्तर्गत उन्होंने लिखा है कि ‘ पैले अनेक प्रकारै पीड़ाओं से मानसपटल छलणि बणयूं छौ। दुर्भाय से ये बुढ़ापा मा एक बज्रपात हौरि ह्वेगि।’

उम्र का लम्बा फासला होते हुये भी प्रेमी जी के साथ संबन्ध सदैव मित्रवत रहे। खिलन्दड़ स्वभाव के धनी प्रेमी जी कई बार बातचीत के बीच में उम्र का बंधन स्वंय ही पाट देते थे। अल्पाहार, संतुलित वाणी और निर्लिप्त भाव रहना उनके मूल व्यक्तित्व में सुमार था।

स्पष्ट कहा जाय तो ‘अपनी गांव की माटी’ में ही अंतिम सांस लेने की लालसा के सिवाय प्रेमी जी की कोई अन्य लालसा थी भी नहीं। वे बार-बार इस बात को दोहराते रहते थे। किन्तु पारिवारिक जनों के मध्य आपसी तालमेल के अभाव के कारण प्रेमी जी कि यह अंतिम इच्छा पूर्ण नहीं हो पाई। 2013 नवम्बर माह में प्रेमी जी से गाजियाबाद में अंतिम भेंट हुई थी। अस्वस्थता हावी थी फिर भी कई मुद्दों पर रूक-रूक कर बातें करते रहे। बीच-बीच में कई बार पहाड़ और परिचितों का जिक्र होने पर भावुक भी हुयेे। हालांकि प्रेमी जी विगत कई वर्षों से अस्वस्थ चल रहे थे लेकिन मन में कहीं भी उनके महाप्रयाण का अंदेशा नहीं था।

प्रेमी जी परम धाम की ओर गमन कर चुके हैं। दृष्टि पटल पर उनके 21-10-2011 को भेज गये पत्र की अंतिम पंक्तियां उभर कर सामने आ रही हैं, जिसमें लिखा है – ‘तेरह अक्टूबर 2011 कर दिन मेरे लिए चिरस्मरणीय बन गया है।….दुखी होकर मुझे ऐसा निर्णय लेना पड़ा जो शायद उस दिन से पूर्व किसी ने नहीं लिया होगा। मैंने जिन कपड़ों को पहन कर साहित्य की रचना की थी उन्हें अग्निदेव को समर्पित कर दिया। ओर आगे किसी प्रकार की साहित्य रचना करने की भी शपथ ले ली। इस प्रकार मेरी यह अंतिम रचना समझना चाहिए। जय श्री राम ! जय श्री राम! जय श्री राम!’

प्रेमी जी ने किन परिस्थितियों और कौन से मनोभावों से पे्ररित होकर यह शपथ ली उसका अब यहां उल्लेख करना प्रासंगिक नहीं है। लेकिन चौरासी साल की आयु तक प्रेमी जी हिन्दी और गढ़वाली भाषा में जो विपुल साहित्य रच गये हैं उसको ग्रन्थाकार रूप में छपवाने की शपथ तो हम भी ले ही सकते हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि उनकी कतिपय अप्राप्त पुस्तकों की फोटो प्रति तथा पाण्डुलिपियां कतिपय साहित्या नुरागियों के पास अभी भी सुरक्षित हैं, जिन्हें समय रहते एकत्र किया जा सकता है।

प्रेमी जी ने अपने जीवन काल में पांच दशक से ज्यादा लम्बी साहित्य यात्रा तय की। दिल्ली में रहकर आपने विपुल साहित्य सृजन ही नहीं अपितु कई साहित्यकारों की पुस्तकें ‘अरूणोदय प्रकाशन से प्रकाशित की हैं। इनमें कन्हैयालाल डंडकिरयाल जी की कृति ‘कुयेड़ी’ तथा जयानन्द खुकसाल ‘बौळ्या’ जी की ‘इलमतु दादा’ प्रमुख हैं। किंतु दिल्ली के साहित्यकारों के बीच भी प्रेमी जी की उपेक्षा चिंतनीय है।

प्रेमी द्वारा रचित सम्पूर्ण साहित्य का मुल्यांकन होना अभी शेष है। सहयोग हेतु कुछ हाथ हम बढ़ायें, कुछ आप बढ़ाओ। प्रेमी जी की यत्र-त्रत्र बिखरी पड़ी समस्त गढ़वाली, हिन्दी की रचनाओं को ग्रन्थ का रूप मिले। यही पुनीत कार्य ‘प्रेमी जी’ के प्रति हमारी विनम्र श्रद्धांजलि होगी!
प्रख्यात साहित्यकार आदरणीय नरेंद्र कठैत जी की वॉल से साभार

About The Singori Times

View all posts by The Singori Times →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *