सुुदामा जी! हमारी अकर्मण्यता के कारण आपकी ‘मधु कुंज’ भी टूट गई!

कृष्ण के सुदामा हमनें नहीं देखे। वे कितने विद्धत थे हम यह भी नहीं जानते। लेकिन जो सुदामा हमारे बीच दशकों तक विपरीत परिस्थितियों में न केवल साहित्य सृजन करते रहे बल्कि उसे छपवाते भी रहे। हमारे वे सुदामा कृष्ण के सुदामा से कम विद्धत और विपन्न कदापि नहीं आंके जा सकते।
ऐसा भी नहीं कि हमारे सुदामा अकर्मण्य रहे। युवावस्था में प्रेस का लोहा पीटने तथा वृद्धावस्था में साहिबाबाद के पी.सी.ओ. की चाकरी करते रहे। देर रात कभी मालिक के पी.सी.ओ. से कुशलक्षेम हेतु फोन मिला देते तो उनसे प्रश्न करता- ‘ प्रेमी जी आप अभी सोये नहीं?’ प्रेमी जी हमेशा एक ही जवाब देते- ‘नहीं अभी मालिक नहीं आये। उनको हिसाब सौंपना है।’ प्रेमी जी फोन करने के बाद कई बार मुझे इसी मनोमंथन के लिए घंटो छोड़ देते- कि – आखिर मालिक की चाकरी के लिए उम्र की सीमा कितनी है?
अकस्मात एक दिन संदेश मिला- ‘कठैत जी ! गांव आ गया हूं! अब मन बना लिया है कि प्राण यहीं त्यागने हैं।’
ठीक उन्हीं दिनों उत्तराखण्ड सरकार के संस्कृति विभाग ने साहित्यकारों के लिए पेन्शन योजना की घोषणा की। खबर सार के संपादक भ्राता विमल नेगी तथा दिवंगत स्वतंत्र पत्रकार ललित कोठियाल के साथ मिलकर आपकी साहित्यिक पेन्शन के पेपर आगे बढ़ाये। सभी औपचारिकताएं पूरी होने पर भी ढेड-दो साल तक पेन्शन प्रकरण के पेपर जहां-तहां लटकते रहे। फिर भी कोशिश नहीं छोड़ी, लगे रहे!

साहित्य जगत की विभूति स्व सुदामा प्रसाद प्रेमी जी


खीज में ही एक बार सुदामा जी लिख बैठे- ‘प्रिय श्री कठैत! मुझे आपसे ऐसी अपेक्षा नहीं थी, ….आप ही लोगों ने कहा कि आपकी तीन हजार रूपये साहित्यिक पेन्शन लग गई है, अब जब मैं अत्यन्त परेशान हूं तो उसके उसके बारे में कोई बता नहीं रहा । आपके अतिरिक्त किससे सहयोग की अपेक्षा करूं? मृत्यु के कगार पर खड़ा हूं लेकिन नीचे नहीं गिर पा रहा। ऐसी दशा में क्या करूं?’
ऐसा भी नहीं कि प्रेमी जी ने मदद के लिए पत्र कहीं और नहीं भेजे। किसी ने जवाब दिया तो कई पत्र प्राप्ति पर भी चुप्पी साध गये। विपन्नता में भी लिखने की ललक इतनी रही कि कलम, कागज पहुंचाने के लिए भी आपने कई बार संदेश भेजे।
हिंदी और गढ़वाली दोनों भाषाओं पर आपके समान अधिकार थे। सरल, सुबोध, बहुविध रचनाकार रहे। भाषा का मान बढ़ा तो साहित्य अकादमी द्वारा आप साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए नामित हुए। निश्चित रूप से हमारे लिए वे गौरव के क्षण थे।
इसी उधेड़बुन में थे कि प्रेमी जी को गोहाटी तक कैसे पहूंचाया जाये? कि ठीक उसी दौरान आपका एक पत्र मिला। लिखा था-‘ प्रिय श्रीमान कठैत जी, मेरि हालत दिनप्रतिदिन बिगड़दै जाणी छ, मी तैं पूरु बिश्वास होणू छ कि साहित्य अकादेमी को घोषित पुरस्कार मेरी किस्मत मा नी छ। पैलि त मि थ्वड़ा भौत चलफिर लेंदू छौ पण अब त चारपाई बटि बि अफ्वी नि उतरि सक्दों। कल्जीखाल पौड़ी तक आणु बि अब कल्पनातीत समझेणू छ।
पर स्वचणो छौं कि पुरस्कार मील नि मील पण साहित्य अकादेमी वळों की ज्व कागजी औपचारिकता मंगी छ वों तैं त पूरी कर द्यूं! ये वास्ता ये एक पेज का आलेख तैं डाक द्वारा आपौ तैं भ्यजणो छौं । कृपा करी येकि द्वी-तीन कापी करी एक कापी तैं रजिस्टर डाक द्वारा साहित्य अकादेमी वळौं का वास्ता भेज देनी, बुरु नि मान्यां, आप लोग जन उपयुक्त समझिल्या करि देनी।’
आपकी इसी मनोदशा में साहित्य अकादमी पुरस्कार, मानपत्र आप तक पहुंचे। लेकिन मात्र मान पत्रों, सम्मानों, पुरस्कारों से पेट नहीं भरते। यूं तो खाने में भी आप एक वक्त पर मात्र एक ही रोटी खाते थे। किंतु उसके लिए भी आप जीवन भर मोहताज रहे। पेन्शन आपकी तब स्वीकृत हृई जब आप सुध-बुध खो बैठे। और यूं अभाव और घोर अभाव में ही आप चल बसे। अभी भी आपकी कई रचनाएं अप्रकाशित हैं। लेकिन यकीनन वह सुरिक्षत हैं। चिन्ता की कोई बात नहीं है।
किंतु – आपके पुत्र से मिली यह खबर थोड़ा स्तब्धकारी है कि आपकी सृजनस्थली ‘मधुकुंज’ भी टूट गई है। वह ‘मधुकुंज’ जो प्रेमी जी के साथ कई लेखकों के उठने-बैठने, विचार विनिमय की गवाह रही है। आपके कहानी संग्रह ‘घंघतोळ’ के विमोचन की स्मृति भी ‘मधुकुंज’ से ही जुड़ी हुई हैं।
विडम्बना ही है कि एक ओर जहां कलमकारों के मध्य प्रसिद्ध और सिद्ध होने के लिए अधिक से अधिक लाइव, महान और ऐतिहासिक शब्दों के कंठाहार पहनने की होड़ मची है, वहीं धरातल पर धरोहरों के खण्डित होने की ये तस्वीरें अन्तर्मन को झकझोरती हैं।
लाइव विचारकों के मध्य हो न हो किंतु धरातल से जुड़े मौलिक चिंतकों के मध्य साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त एक लेखक की सृजन स्थली की यह दुर्दशा अन्तर्मन को और कचोटती है।
कह नहीं सकते खण्डहर को ढकती प्लास्टिक की पन्नी के नीचे कितनी धरोहर सुरक्षित है। किंतु साहित्य, संस्कृति के समग्र विकास के लिए ‘मधुकुंज’ के संरक्षण के प्रयास तुरन्त अपेक्षित हैं।
साहित्य के नामी साधक आदरणीय नरेंद्र कठैत जी की वाॅल से साभार।

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