श्री विद्यादत्त शर्मा कलम और खुरपी के महामना!

पहाड़ में चीड़ की भीड़ ही भीड़ है। इसलिए चीड़ आत्ममुग्ध है कि वही पहाड़ की रीढ़ है। लेकिन थोड़ी सी भी, तेज हवा के झौंक में चीड़ की समूल उखड़ जाने की प्रवृत्ति भी हमनें करीब से देखी है। हालांकि अंत, देर-सबेर सबका निश्चित है। वो इमारती हो अथवा करामाती, जलना सबको लकड़ी होकर ही है। किंतु चीड़ इतना बुद्धिहीन, बेखबर भी नहीं है – या – यूं कहें कि उसको यह भान नहीं है कि उसके रग-रग में प्रज्वलन क्षमता भले ही है किंतु उसमें बांज के समान घनी छाया, मजबूत पकड़, प्रचण्ड ताप और शीतलता का वास नहीं है। इसीलिए चीड़ की आत्मा कदम-कदम पर बांज से खौफ खाती है। और-बांज से जितनी दूर हो सके पांव पसारती है।

पहाड़ की पगडंडियों, धार-खाल-वनपथों पर ही नहीं अपितु साहित्य, कला, संस्कृति के क्षेत्र में भी ऐसी ही अति उत्साही चीड़ की सी भीड़ है। लेकिन…..इंही चीड़ और चीड़ के कुनबों की भीड़ से अलग कुछ ऐसे भी हैं जिनमें बांज सा रूतबा, बांज सा कद, बांज सी शीतलता कूट कूट कर भरी हुई है। इंही में से कलम और खुरपी के धनी महामना हैं – श्री विद्यादत्त शर्मा !

आयु नब्बे के करीब-करीब! काया दुबली पतली, पीठ सीधी तनी हुई। हाथ में छड़ी – जी नहीं! आंखों पर चश्मा- वह भी नहीं! लेकिन सतत गतिमान, उद्यमशील। संगी साथी दो गाय, दो बछड़े, एक जोड़ी बैल, मुर्गीयां, इर्द-गिर्द मंडराती मधुमक्खीयां और पास ही श्वान परिवार का एक नन्हा सा जीव भी। और
कर्मक्षेत्र – विकास खण्ड पौड़ी के कल्जीखाल, मुण्डनेश्वर के समीप ग्राम सांगुड़ा, मोती बाग की उर्वरा भूमि!

खेती किसानी की परिचर्या से ही एक सवाल को जगह दी-और विद्यादत्त जी से सवाल किया कि- ‘कैसे शुरू होती है दिनचर्या आपकी?

श्वान परिवार के नन्हे जीव की ओर आपकी आंखे झुकी और तपाक से जवाब मिला कि- ‘सुबह इसे दूध पिलाने से दिनचर्या की शुरूआत हो जाती है।’

-और फिर?

-पेड़ पौधों की रखवाली। ऐसा नहीं कि पौध लगाई और हो गई छुट्टि! दरअसल खर पतवारों की प्रवृत्ति पौधों को दबाने की होती है। इसलिए बरसात में भी पौधौं के बीच एक गश्त लगानी होती है। गश्त न लगी और नजर हटी तो समझो खर पतवार ऊपर और पौध ढकी। हालांकि एक सीमा के बाद खर पतवार की ग्रोथ रूक जाती है लेकिन तब तक वह पौधे की खुराक हजम कर जाती है। इसलिए खुरपी, कुदाल हर समय हाथ में रखनी होती है। वैसे भी खेती किसानी अपने ही संशाधनों पर निर्भर होनी चाहिए। इसी के आगे ठेट गढ़वाली में जोड़ते हैं-
सुणा कठैत जी! दैं रिटाणू बि अपड़ा बळद सुद्दि नि देंदू क्वी!

खेती किसानी के यही मूल भाव, जीव जगत की सेवा और पेड़ पौधौं के निमित्त यह श्रमसिद्धी ही रही कि आपकी ‘मोेतीबाग’ डाम्क्यूमेंट्री को केरल में आयोजित ‘अन्तराष्ट्रीय शार्ट फिल्म समारोह’ में प्रथम स्थान पर रही। समय-समय पर समाचार पत्रों में भी हेडिंग्स पढ़ने को मिली – Where there is a will, there is a way. विद्यादत्त के पसीने से सोना उगल रही बंजर जमीन, अनूठा है विद्या विधि निर्मित सुखदेई जलाशय, मोतीबाग में दी जायेगी नई कृषि तकनीकी की जानकारी, उजड़ते गांवों की तकदीर बदलेगा ‘शर्मा फार्मूला’, श्रमसाधक विद्यादत्त शर्मा मानद उपाधि से सम्मानित।

लेकिन पेड़ पौधों और जीव जगत के प्रति अगाध श्रद्धा के बीच आपके व्यक्तित्व की एक और शाखा है – वह है कवित्त पर आपकी शसक्त लेखनी! हिन्दी और गढ़वाली दोनों भाषाओं में आपकी मौलिक रचनाएं पीड़ा, अनुभूति, कविता, याद, धाद, दर्पण, बक्की-बात में पुस्तकाकार तो हैं ही लेकिन पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से भी पाठकों तक पहुंचती रही।

आपकी कविताओं के संदर्भ में उत्तराखण्ड खबरसार के संपादक विमल नेगी ने मई 2006 के दूसरे अंक में ‘मिल्यूं थ्वड़ा सि त्वे, सम्भळदु छै त् सम्भाळि ले’ शीर्षक के अन्तर्गत लिखा भी है कि – ‘ हिंदी अर गढ़वाळि कविताओं कि विषय वस्तु कवि कि अपणि दैनिक जीवन चर्या से उठाईं छन। कै बि तरां का लागलपेट से दूर वून साधारण सा विषयों पर बड़ा सहज अंदाज मा अपणि कलम चलै दे। ज्या वूंका मन मा ऐ वो वूंन लेख दे। वूंन कविताओं तैं गढ़नै यानि कि कै सुनारै तरां या मूर्ति शिल्पी कि तरां अपणा औजार चलै कि वूं तैं सजौण सवरणै कोशिश नि करी। बलकन वूं तैं जन्या-तनि सब्यूं का समणि रख दे।’

आपने रचनाओं को सजाने सवांरने की कोसिस भले ही न की हो लेकिन त्रुटियों के निराकरण के प्रति आप सदैव सजग जरूर रहे हैं। एक नहीं अपितु कई बार आप ‘शिखर साहित्य प्रकाशन’ के भीतरी कक्ष में छपी पुस्तकों की त्रुटियों को सुधारने में तल्लीन दिखे हैं। सत्य कहें भाषा और पाठकों के प्रति ईमानदारी के ऐसे भाव विरले रचनाकारों में ही देखने को मिले हैं। ऐस ही भाव गालिब के सन्दर्भ में अक्षर पर्व के जून 2007 के एक आलेख में कुछ यूं छपे हैं कि – ‘अपनी पुस्तक ‘दस्तम्बू’ के छपने के दौरान गालिब को पता चला कि एक शब्द अरबी है उन्होंने मुंशी हरगोपाल लफ्त को खत लिखा- ‘नहीब लफ्ज अरबी है, अगर रह जायेगा तो लोग मुझ पर एतराज करेंगे। तेज चाकू की नोक से ‘नहीब’ लफ्ज छीला जाय और उसी जगह ‘नवाय’ लिख दिया जाय।’ लेकिन सवाल यह है इस तथ्य को समझने वाले कलमकारों की संख्या कितनी है।

यह पूछने पर की- कृषि क्षेत्र में आपके कौशल, कल्पना और कला का संज्ञान लिया गया लेकिन आप उत्तराखण्ड के वयोवृद्ध कवियों की श्रेणी में भी हैं। क्या है आपकी प्रतिबद्धता कवि रूप में?

जवाब मिला- देखो जी! ‘कवि होंगे तो और कोई/मैं तो हूं बस कवि का बाप/व्यक्त कर रहा जिन भावों को/पूर्ण सत्य है नहीं मजाक।… अमूमन पैंसठ साल की उमर में कोई कवि नहीं बनता।’ फिर थोड़े से विराम के बाद वाणी को हल्का सा प्रवाह देते हैं- ‘मेरे घर में एक फरिश्ता आया था। ठीक हुआ चला गया। वो दुख नहीं है। रहता तो विक्षिप्त होकर घूमता। क्योंकि एक नहीं कई विधाओं का ज्ञाता था दीनानाथ!‘

दीनानाथ ! आपके ज्येष्ठ पुत्र! 22 जून 1997 को सैंतीस वर्ष की आयु में एक दुर्घटना में काल कवलित! अब मात्र ‘स्मृति शेष’! इसी नाम से मित्रवर सुबोध हटवाल एवं अनिल बिष्ट ने संयुक्त रूप से एक पुस्तक भी संपादित की है। हालांकि स्मृतियां फिर भी अशेष ही रहती हैं। इस कटु सत्य को फरिश्ते भी जानते हैं कि आत्मीय के विछोह के घाव सदैव हरे ही रहते हैं। लगता है उस फरिश्ते ने ही आपको ये निर्लिप्त भाव दिये हैं।

थोड़े से अंतराल के बाद आप ही मौन तोड़ते हैं- ‘गये देह को छोड़ बस गये अन्तर में/देते हैं सहारा घड़ी-घड़ी और पल -पल में।’ और फिर यर्थाथ के ताप में तपी हुई जितनी कविताएं कंठस्थ सुना डालते हैं। लगभग दो घंटे के समय को भी वक्त की दरकार महसूस हुई सारगर्भित तथ्यों को समेटने में।

सवाल यह भी नहीं कि विद्यादत्त जी की कविताओं की संख्या कितनी है ? किंतु यकिनन कह सकते हैं कि सरल एंव बोधगम्य भाषा प्रवाह विद्यादत्त जी के लेखन कौशल के प्रमाण रहे हैं। आपने दुख -दर्द, अभाव, गरीबी, बेरोजगारी, अहिंसा, करूणा लगभग हर एक भाव रेखांकित किये हैं। इस तथ्य को भी उद्घाटित करने में भी गौरव का अनुभव महसूस करते हैं कि आपकी कई पुस्तकों के आवरण तथा कविताओं पर दिवंगत ख्यातिनाम चित्रकार बी. मोहन नेगी ने भी अद्भुत चित्रांकन किये हैं।

आपकी सरल, सुबोध कविताओं को पढ़ते ही भाव स्वयं पर घटित लगते हैं। क्योंकि आम आदमी के चैके चूल्हे एक से हैं। आटा-चावल, दाल-रोटी के सीमित साधन हैं। आम जरूरतों के उठते भाव विचलित करते हैं। प्याज के चढ़ते भाव पर ‘बक्की -बात’ में आपने शब्द दिये हैं- ‘रूवाणू च प्याज दगड्य आसमान जैकी/कनक्वे घुटण छुड़ि रुट्टि पाणि घूूट पेकी/य बक्किबात कबि नि देखी।’ – ‘ उल्टि गाड बुगणी छन यख त कैल सुणिन/लुखुकु उडुदु छायु बुखु हमर चौंळ उड़िन।’ और…इससे बड़ी पीड़ादायक स्थिति क्या हो सकती है कि-‘सोची छौ गरीबी जाली, अर आली खुशहाली/रोग त रैगे जख्या तखी, मरीज की खटुली खाली।’

अतः जो कुछ मिले, उसे मिलजुल कर बांट लें। मानवता का धर्म भी यही है। विश्वास न हो तो कौवे से सीख लें-
‘काव काव काव /कि आव आव आव!
चाहे खण्डकि एक ह्वाव/या कि टुकड़ि-टकड़ि ह्वाव!
वीं धै लगै कि खाव/आव आव आव!
सभी मिलि जुली कि खाव!

एक लोकोक्ति भी है कि एक तिल भी कई भाईयों में बांटकर खाया गया। लेकिन बंटने की भी एक सीमा होती है। अब हम इसे जनसंख्या के आगे संसाधनों की कमी कहें या संपन्नता का उछाल कहें कि लोग पहाड़ से पलायन करते चले गये। जो गये तो गये। …और यूं घर-परिवार-कुटुम्ब-गांव सिमटते-सिमटते खंडहर होते रहे। पलायन के बाद घर-परिवार, कुटुम्ब और गांवों के हालात आपने भी करीब से देखें हैं। इसलिए आपने ‘बक्की-बात’ में सटिक शब्द उकेरे हैं-
‘बड़ि-बड़ि मौ कू, लगि गाय ताळू/कूड़ि खन्द्धरी ह्वे, जमि गाय डाळू
कूड-बुड्य क्वी रै गीं घारू/नई छ्वाळि का लग्यां उंदारू…..
.बांझ पोड़ि गाय छोड़ किनारू/द्वी पुंगड्यूं मा सट्टि झुंगारू/सतर मवासि अर एक हल्यारू
सूरि दाद कू रयूं च सारू/कतग पुर्यालु एक बिचारू।’

‘सर्य गढ़वाळ की एक बोट, बारहस्यूं ह्वा चाहे चौंदकोट
छ्वाड़ा गढ़वाळ अर जौंला देश, बांध बिस्तर अर पैर कोट।’

एक विडम्बना यह भी देखिए!
‘मैदान छोड़ि की गेन जौंन पैथर नी देखे/दीणा छन रैबार कि तू रण जीति कि ऐ रै।’ दौड़ने वालों से कहीं अधिक दौड़ाने वालों की भीड़। ऐसे में क्या मालूम किससे हाथ क्या लगे? ‘क्वी लगान्द जान्द धै, नि खान्दू त रैणि दे।’ धै लगाना भी तब ही सार्थक है जब कोई समझे, मनन करे! लेकिन जो ईमानदार, सरल, सज्जन हैं वे पल में तोला, पल में मासा नहीं होते। इसीलिए विद्यादत्त जी ने लिखा भी है कि – ‘स्याळ दौड़णा छन अनेकों, स्यळ सिंगी कै कै मा हूंन्दा/दूंळ दूंळों छन गूरौ बैठ्यां सर्प मणि कै कै मा हून्दा।’

अति के सामने प्रतिकार भी जरूरी है। ‘उठिजा म्यारा वीर अभिमन्यु आज महाभारत उर्यूं छ/उतिरि जा रण क्षेत्र मा तू, त्वे परैं सारू रयूं छ।/आज का दिन दिखै दे करतब दुःशासन समणी खडू छ/भोळ आला भीम अर्जुन दुयूं कू रैबार अयूं छ।’

अब आडम्बर को बाघम्बर से ढापकर भी नहीं रहा जा सकता। सबके लिए कानून एक समान है चाहे वह पशु पक्षी ही क्यों नहीं हैं। आपके ही कवित्त में कुछ यूं झलका है कि- ‘अब न पैरि तू मृगछाला/न आसन बिछै बगमारी/बन्य जन्तु कानून मा/फंसे जाण तिल/स्यु बोलि यालि मिल।’ वहीं ‘पीड़ा’ के पृष्ठ पर लिखा है – ‘खेले किसी की जान से दस को दिखाया है जो खेल/विटनेस बनेंगे कल वही, और पहुंचाएंगे जेल।’

एक बात और है! क्या कहें राजनीति के लक्षण ही ऐसे ही हैं – ‘हडकि कैकु, लतुगि कैकु, झोळ झाळ कै खुणै/बिन बातौ मुण्डरू हूयूं च, दिनरात कू कै खूणै। …दुकड़ि कैकि दे नि सकदु, एक बोट सबु सणै/सी च जु सामथ्र्य मेरि, हां जी , हां जी सबु खुणै।’ क्योंकि -‘ बैठि-बैठी हूणी बात, कनै होलु बद्रीनाथ।’

विद्यादत्त जी की कल्पना के बद्रीनाथ ही नहीं केदार नाथ भी साक्षी हैं कि उन्होने दूरदृष्टि से ये शब्द एक दशक पूर्व ही बुन डाले थे। विवेचन करने पर ऐसा लगता है कि ये शब्द वर्तमान हालात को ही देखकर रचे गये थे। -गौर करें! ‘पीड़ा’ के ही शब्द हैं-
‘बीकि गीन बल्द, रै गीन म्वाळा
तौं थै सम्भाळा, तौं फुण्ड नि ध्वाळा../गोरू नि राया त मनख्यूं कु म्वाळा
तौं थे सम्भाळा, तौं फुण्ड नि ध्वाळा।’

फरवरी 2008 में दिवंगत साहित्यकार सुदामा प्रसाद प्रेमी जी के दिवंगत ज्येष्ट पुत्र के वार्षिक श्राद्ध की सूचना मिलते ही आपने करूणामय पंक्तियां लिखी हैं- ’चिट्ठि मील भैजि की/कि भुला त्वी बि ऐ जै/ब्यट्टा ओम चलिगे/बरसि म तु ऐ जै/अचणचक्कि जु सूणी/त घंघतोळ ह्वे गे/लग्यां घौ कि जिकुड़िम/चीरा डळेगे/कट्यां घौ मा फिर/लूण मरचा रळेगे/बुढ़ीदै कि दौं कु/यु घंघतोळ ह्वे गे/अरे काल कर्ता/तु हम खुणि क्य कैगे/हमारु फूल ल्ही गे/कुमर हमु तैं दे गे/सदनि बचण तक कू/तु घंघतोळ कै गे।’ करूणा की ऐसी भाव व्यंजना कवि मित्रों में आज तक देखने को नहीं मिली है।

हिंदी में भी रचित आपकी कविताओं का वितान कम नहीं है।
‘पीड़ा’ की पीठ पर अंकित ये पंक्तियां बरबस ध्यान खींचती हैं। लिखा है- ‘भीड़ में खो गया है आदमी/रह गयी पहिचान बस मकान की/दिलों में पड़ गई है सिकुड़नें/बुलन्दी रह गयी बस जवान की।’ अथवा -‘सौ में से पंद्रह भले होंगे/बीस होंगे बूरे यहां/बाकी बेपेंदी के लोटे/कभी यहां तो कभी वहां।’ ‘कविता’ संग्रह की पंक्तियां हैं-‘चला गया था कल कोई ,मैदान पूरा चूंग के/दूसरा आ गया है, फिर वहीं पर घूम के।’ या -‘ गरीबी का लोग मेरी, उड़ा रहे मजाक/काम और हैं कई, मत छाप तू किताब।’ और ‘याद’ संग्रह की ये पंक्ति – ‘बन्दूक रखूं किसके कांधे/निशाना जो लग जाय सही/सन्त-महन्त का गया जमाना/और नेता पर विश्वास नहीं।’

लेकिन ऐसा भी नहीं की उम्मीद की डोर टूट गई। या आगे कोई राह शेष नहीं। लगन यदि मन में हो तो ‘अनुभूति’ की ये पंक्तियां प्रेरणा के लिए हैं तो सही। – ‘द्वी ढुंग्यूं मा धैर द्वी ढुंगि नई, खडु ह्वे कि कमर कस उठ त सई/भेळ पखाण अर पत्थरड़ मा, बणि जालि तेरी एक बाट नई।’ आपके काव्य संग्रह ‘बक्की-बात’ की पंक्तियों से एक और रोशनी की उम्मीद जगी है। आपने लिखा है ‘बांज बूण लगीं आस/नया मौळयार का सास।’ दरअसल चीड़ की भीड़ में एक बांज ही ऐसा है जिसके स्रोत और छाया से जीवन को असीम ऊर्जा मिलती है।

विद्यादत्त जी! बांज के झुरमुटों के बीच आप भूमि, जल, जीव संरक्षण के साथ-साथ साहित्य संवर्द्धन में भी यूं ही अनवरत साधना रत रहें! आप शतायु जीएं!

नरेन्द्र कठैत फेसबुक वॉल से

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