ये ! ज्ञान के कठैत !

एक क्षण आप भी ठिठक गये होंगे कि ज्ञान तो ठीक है किंतु इस वाक्य में ये ‘कठैत’ क्या चीज है? कुछ लोगों को इस शब्द से भी भयंकर चिढ़ है। यूं तो चिढ़ और खीज उनके निजी विषय हैं। खैर! जो चिढ़ और खीज से मिट्टी में लोट रहे हैं उन्हें लोटने दें। किंतु यदि आप इस शब्द की परिधि में आते भी हैं तो उतेजित होने की आवश्यकता भी नहीं है। दरअसल भाषाई दृष्टि से भी कठैत तीन कौड़ी का न सही वह कुल जमा तीन आखर का ही है। उसका कोई अर्थ भी नहीं है। अतः शब्द कोश में इस शब्द को टटोलने की आवश्यकता भी नहीं है। यह शब्द नापने-तोलने या खाने-पीने की वस्तु भी नहीं है । लेकिन आश्चर्य तब होता है जब कुछ कलमकार बंधु ऐसे ही शब्दों की मनमाफिक परिभाषाएं भी गढ़ लेते हैं।

अब इस ‘कठैत’ शब्द का ही उदाहरण देख लिजिए। सन्दर्भ दशक भर पुराना है लेकिन आज भी प्रासंगिक है। सन्दर्भ यूं था कि – अमर उजाला दैनिक के 01 अगस्त 2010 के अंक में एक आलेख की हैडिंग छपी- ‘ज्ञान के कठैत!’

लेखक थे – रवींद्र त्रिपाठी! त्रिपाठी जी ने वरिष्ठ कथाकार ज्ञानरंजन की ‘पहल’ को आधार बनाकर इसी आलेख के एक वाक्यांश में ‘कठैत’ शब्द की व्याख्या कुछ इस तरह की हैै- (वे कहानीकार जो लठैत की तरह कलम व कंप्यूटर उठा लेते हैं) है।’ आगे लिखा है- ‘ऐसे ही कुछ कठैतों ने चंदन पांडेय की धीमे स्वर की आलोचना पर भी जोरदार हमला बोल दिया है। देखते हैं कि मामला कहां तक आगे बढ़ता है।’

साहित्यकार नरेंद्र कठैत

कह नहीं सकते त्रिपाठी जी आतिथि तक उस बढ़े हुये मामले को देख रहे हैं या नहीं। फिर भी! यूं ही त्रिपाठी जी से इस ज्ञान वृद्धि के लिए सम्पर्क साधने का प्रयत्न किया लेकिन भरसक कोशिश के बाद भी सम्पर्क सधा नहीं। उनको इस नये शब्द गढ़ने के लिए बधाई संदेश मिले या नहीं अथवा किसी ने उन्हें भाषा के साथ इस अनाधिकृत प्रयोग के लिए आगाह किया या नहीं यह भी मालूम नहीं। किंतु मुमकिन है अगर आज भी साहित्य के नाम पर उनकी कलम चल रही होगी तो इस बीच उन्होंने ऐसे ही कई नये शब्दों की व्याख्यायें भी गढ़ ही दी होंगी। त्रिपाठी जी के ‘कठैत’ शब्द पर दृष्टि इसलिए ठिठकी कि यह हिंदी का अर्थमूलक शब्द है ही नहीं। वस्तुतः असहज शब्दों के लिए हर भाषा में यही स्थिति है। क्योंकि हर एक भाषा का एक मौलिक स्वरूप तो है ही है!

ठीक ऐसे ही प्रयोग के आवेश में जब हम दूसरी भाषाओं के कठिन शब्दों की भरमार गढ़वाली पाठ में देखते हैं तो क्या ये प्रश्न विचारणीय नहीं हैं? कि-

‘गढ़वाली हमारी मातृभाषा है!’ तो फिर उन अन्य भाषाई कठिन शब्दों का प्रयोग क्यों जो आम गढ़वाली मानस के आम व्यवहार में भी नही हैं? क्या गढ़वाली भाषा में हरेक अभिव्यक्ति के लिए शब्द सामर्थ्य कम है?

कविता लिखने में हम अन्य भाषाई कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं करते तो क्या गद्य में लिखने के लिए ही स्वतंत्र हैं? या गद्य गढ़वाली भाषा का अंग नही है?
क्या भाषा की शुद्धता की कसौटी पर यह मान लें कि गढ़वाली मात्र कविता की भाषा है?

गढ़वाली भाषा में अन्य भाषाई कठिन शब्दों के अबाध प्रयोग पर मौलिक सृजकों की चुप्पी क्या उनकी मौन स्वीकृति है?

एक अहम सवाल यह भी कि- किसी भी भाषा के संवर्द्धन में उस भाषा के कोश की भी अहम भूमिका होती ही है। इस सन्दर्भ में विद्वानों ने कहा भी है और भाषिक नियम भी यही है कि लिखित भाषा में अगर बाहर के भी शब्द हों तो उनके लिए भी कोश में जगह रखनी ही है। यदि यह कथन विद्धतजनों की कसौटी पर सही है तो हमारे कोश निर्माता क्या उन शब्दों को कोश में स्थान रखने के लिए गम्भीर हैं जो आम गढ़वाली बोलचाल में बिल्कुल भी प्रचलित नहीं हैं?

हमारे पीछे भावी पीढ़ी आखिर किसी न किसी प्रत्याशा में खड़ी है। उसके आगे मातृभाषा से भाषा तक की सीढ़ी है। क्या भाषा के इस गडमड स्वरूप को हम भावी पीढ़ी को इस मौन स्वीकृति के रूप में देखें कि मातृभाषा भले ही उनकी गढ़वाली है किंतु वे वह राह चुन लें जिस पर स्वनामधन्य श्रीयुत मंगलेश डबराल, लीलाधर जगुड़ी, सुमित्रानन्दन पंत, शैलेश मटियानी, आदि-आदि बढ़े हैं?

भाषा के साथ इस मनकाफिक प्रयोग और उसके बाद उभरे स्वरूप को हम राहुल सांकृत्यायन जी की पुस्तक ‘किन्नर देश में’ की इन पंक्तियों में देखते हैं। आपने लिखा है- ‘जब किसी भाषा का अधिकांश शब्दकोश ही नहीं बल्कि विभक्तियों तक का भी स्थान दूसरी भाषा लेने लगती है तो समझ लीजिये अब वह अन्तिम घड़ियां गिन रही है।’

हालांकि अभी भाषा के मुद्दे पर हम इतने लापरवाह भी नहीं हैं। किंतु वस्तुस्थिति चिंतनीय तो है ही हैै।

दुर्भाग्य यह है कि वर्तमान में हर एक मौलिक रचनाकार अपने ही बुखार से तपित एंव पीड़ित है। फिलवक्त तो यही कह सकते हैं कि जब तक गढ़वाली भाषा को उसका मौलिक मान न मिले- बकौल त्रिपाठी जी की शब्दावली से! मां सरस्वती ‘ज्ञान के कठैतों’ को सद्बुद्वि दे!

साहित्यकार नरेन्द्र कठैत जी की फेसबुक वॉल से साभार

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