चालाक और धूर्त लोगों के समक्ष मैंने अपने को हमेशा बौना पाया

बहुमुखी प्रतिभा के धनी आदरेय श्री बी. एल. दनोसी !
श्री बी. एल. दनोसी !! इन नामाक्षरों पर कतिपय अक्षर शिल्पियों की दृष्टि अवश्य ठिठक गई होगी। मन में एक उधेड़बुन होगी आखिर कौन है यह व्यक्ति? दरअसल बी. एल. दनोसी
हमारे मध्य सौम्य स्वभाव के एक ऐसे सृजनशील व्यक्ति रहे हैं जिनके सृजन के साथ सदैव खामोशी ही जुड़ी रही।

आप मिशन स्कूल गडोली तत्पचात मैस्मोर इन्टर काॅलेज,पौड़ी एंव क्रिश्चियन कालेज लखनऊ से बी.एस.सी तथा अविभाज्य उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में ऊर्जा विभाग की सेवा में लम्बी पारी के बाद 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। किंतु शासकीय सेवा के समानान्तर आपका वह बहुआयामी पक्ष भी है जिसकी छाया में सन् 1969 से ओबरा (सोनभद्र) से शुरू हुई आपकी लेखन यात्रा आज पिचहतर पार वय में भी अनवरत जारी है।

यदि आपके लेखकीय पक्ष को ही प्रथम पटल पर रखें तो इन विगत पचास वर्षों के अंतराल में आपकी गढ़वाल के शिल्पकारों का इतिहास, गरीब की मां, जमीन आसमान, चन्द्रापुरम, सौतेली मां, आंचल का दाग, हर हर केदार, सरकारी कलम, शिल्पकार बनाम पिछड़ी जाति बनाम आरक्षण, आत्मकथा भवबंधन तथा उसका आंग्ल वर्जन अ बण्डल आॅफ बर्डन सहित विविध विधाओं की एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। साथ ही गढ़वाली चलचित्र ‘श्याम ढलणी च’ की कथा, पटकथा के साथ ही उसके 8 आंचलिक गीत भी आपके लेखकीय खाते में दर्ज हुई हैं।

आपके लेखकीय अवदान में ‘गढ़वाल के शिल्पकारों का इतिहास’ आपकी महत्वपूर्ण कृति है। विभिन्न उपन्यासों, कहानी संग्रहों के बीच ‘भवबंधन’ आपका 409 पृष्ठीय वृहद आत्मकथात्मक दस्तावेज है।

‘भवबंधन’ की भूमिका को स्वंय बांधते हुए आपने लिखा है कि ‘भवबन्धन वास्तव में मेरी अब तक के जीवन में झेली गई आप बीती की जीवंत गाथाओं का एक दस्तावेज है जो जीवन के विविध रंगों से रंगा हुआ है।….मेरे मन मस्तिष्क में जात, पात, गरीबी, हानियों, बीमारियों, भेदभाव संघर्ष, सफलता और असफलताओं का एक लम्बा और क्रूर इतिहास शिद्दत से अंकित है। यही कारण है कि अवस्था के इस दौर से गुजरते हुए मुझे यह विवेचन करने की आवश्यकता महसूस हुई है कि क्या मैंने इस धरती पर जन्म लेकर एक सार्थक जीवन जीया है या नितांत निरर्थक?’

इसी पुस्तक के आत्मावलोकन खंड में आपने लिखा है कि ‘मेरे जीवन में जिन संस्कारों की बदौलत मेरे चारित्रिक गुणों का विकास हुआ है वह मेरे माता-पिता से ही मुझे प्राप्त हुए हैं। मां ने मुझे देवी-देवताओं के प्रति आस्था रखना सिखाया। उसने मुझे शिक्षा का महत्व समझाया। झूठ बोलने पर कठोर दंड दिया। सच बोलने पर पीठ थपथपाई। अपने छोटे भाई-बहनों का अग्रज होने का दायित्वबोध समझाया। अपने सौतेले भाई-बहनों से नफरत करने के बजाय उनसे प्यार करना सिखाया।….पिता से मुझे विन्रमता तथा अपने दुश्मन को भी माफ कर देने का गुण विरासत में प्राप्त हुआ। अपने से छोटों द्वारा अगर कोई गलती हो भी जाती है तो उसे तूल देने के बजाय उनको माफ कर देने का गुण मैंने पिता से ही सीखा। किसी से बदजुबानी करने कि बजाय चुप्पी साध लेने का गुण भी मुझे पिता से विरासत में मिला है।….चालाक और धूर्त लोगों के समक्ष मैंने अपने को हमेशा बौना पाया है। अंततः जो दे उसका भी भला जो न दे उसका भी भला जैसा चिंतन ही मेरे अशांत मन को शांति देता रहा है।

आपके जीवन के नितांत व्यक्तिगत सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमते हुए भी ‘भवबंधन’ के कई उद्धरण पठनीय हैं। इन्हीं उद्धरणों में केदार घाटी के अगस्त्यमुनी से विगत आठवें दशक से जुड़े दो सांस्कृतिक पक्ष उभरकर सामने आते हैं। एक स्थान पर आपने लिखा है ‘ उस समय तक क्षेत्र की रामलीला दशहरे में मंदाकिनी नदी के बायें तट पर स्थिति विजयनगर बाजार में मंचित की जाती थी। मगर हमनें स्थानीय लोगों की सहमति से अगस्त्यमुनी के ऐतिहासिक मैदान के पूर्वी छोर पर एक स्थान चयन करके उस पर रामलीला मंचन के लिए एक पक्का मंच बनवा दिया था। इसी मंच पर हमनें तीन वर्ष तक लगातार रामलीला का मंचन किया।….15 जून 1975 को रामलीला का उद्घाटन हमनें उपखण्ड अधिकारी एन.सी.पाण्डे जी के हाथों करवाया।’

एक अन्य स्थान पर लिखते हैं कि ‘आज भी रामलीला के कई गीत और चैपाइयां मुझे याद हैं। अपने रामलीला खेलने के शौक को जीवन में एक बार पूरा करने की तमन्ना के चलते बाद के वर्षों मैं मैंने स्वंय जनपद रूद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनी कस्बे में 3 वर्ष तक रामलीला का मंचन, निर्देशन करने के साथ-साथ रावण की यादगार भूमिका भी निभाई थी। ’ नाट्यशिल्पी एस.पी. मंमगाई के निर्देशन में ‘वीर अभिमन्यु’ तथा ‘एक और द्रोणाचार्य’ में भी आपके अभिनय का उल्लेख मिलता है।

दूसरा उद्धरण इसी केदार घाटी से जुड़े सिनेमा हाल के निर्माण और उससे जुड़े प्रसंग का है। सन् 1977 में विजयनगर में 250 सीटों से सुसज्जित किराये की जमीन पर लक्ष्मी टाकीज’ नाम के अस्थायी सिनेमा हाॅल, प्रथम फिल्म ‘मीरा श्याम’ का प्रदर्शन, देहरादून के आॅपरेटर वर्मा द्वारा प्रथम दिन तीन शो का चलाया जाना, भागीरथ पैलेस दिल्ली में बैठे ऐजेन्ट से स्टेट बैंक अगस्त्यमुनी के मारफत आर. आर. भेजना, श्रीनगर रेलवे आउट ऐजेन्सी से हर हफते फिल्म छुड़ाकर अगस्त्यमुनी लाया जाना, ज्यादा डिमांड धार्मिक और हिट फिल्मों की रहना, छल-कपट के कारण आगे उक्त व्यवसाय का लगातार घाटे में चलना, फिल्म की आर. आर. छुड़ाने के लिये उनके नाम से बाजार से रूपया उधार लिया जाना, सिनेमा हाॅल का 17 अक्टूबर 1981 को ठेकेदार लक्ष्मण सिंह से सौदा तय करना, 30 हजार की बोली के विस्द्ध सिनेमा हाल को मात्र 17 हजार में बेचे जाने के प्रसंग केदार घाटी के तात्कालिक सांस्कृतिक पक्ष की हलचलों को भी उजागर करते हैं।

‘भवबंधन’ की पंक्तियां गवाह हैं कि आपने छल-कपट के इस दंश को कितनी गहराई तक महसूस किया है। आपने लिखा है- ‘ मैंने यह कल्पना कभी भी नहीं की थी कि उस सिनेमा हाॅल का इस प्रकार से अंत होगा।…उसके डूबने का दर्द जब आंसू बनकर मेरी आंखों से बाहर निकलने को बेचैन हुए तब मैं चुपचाप कमरे से बाहर निकलकर मंदाकिनी नदी की छोटे-बड़े बोल्डरों के साथ अठखेलियां करती बहती तेज धाराओं की निर्मलता को आत्मसात करने की गरज से मैदान के छोर पर जा पहुंचा। उस एंकात में बैठकर मैंने अपनी पलकों के पीछे छिपाकर रखी गंगा जमुना को छलकने के लिये मुक्त कर दिया था।’

‘गढ़वाल के शिल्पकारों का इतिहास’ में आपने कुछेक गम्भीर प्रश्न उकेरे हैं -‘मैं कौन हूं? मेरा पिता कौन है? मेरे पिता का पिता कौन है? और मेरे आदि पिता कौन हैं? मेरी उत्पति शिल्पकार समाज में क्यों हुई? क्या मेरे आदि पिता भी शिल्पकार थे? क्या उच्च वर्गों के आदि पिता अलग मानव थे? क्या मेरे और उच्च वर्गों के पिता अलग-अलग थे? या फिर सारे मानवों का आदि पिता एक ही था? मेरे मन में ऐसे अनेक प्रश्न रहे हैं, जिनका उत्तर अभी तब नहीं मिल पाया।’

समस्त प्रश्न विचारणीय हैं। पंक्तियों को पढ़कर लगता है कि आपने ऊंच -नीच, भेदभाव के अनेकों दंश झेले हैं। लेकिन आप समरसता की मनोभावना को भी बेबाकी से लिखने में नहीं चुके हैं। एक संदर्भित स्थान पर आप लिखते हैं – ‘बिचली रांई के नेगीयों की बात ही अलग है। उन्होंने मेरे सभी बच्चों के विवाह समारोहों एवं प्रीतिभोज में सम्मिलित होकर समाज के समक्ष जो सद्भावना और समरसता प्रदर्शित की है वह इस बात की द्योतक है कि बिजली रांई के नेगीयों और डंडवासियों के मध्य पूर्वकाल से ही ऐसे सम्बंध कायम रहे हैं।’

अन्याय का प्रतिकार होना ही चाहिए। अन्याय चाहे किसी भी स्तर का हो, घोर निंदनीय है। किंतु हर मर्ज में दवा भी तुरन्त असरकारक नहीं होती है। लेकिन इस तथ्य को नई पीढ़ी कहां समझती है। उसमें तो हर एक मामले में तुरन्त प्रभाव की ऊर्जा और चमक-दमक की भावना बलवती रहती है। जबकि सामान्य थ्योरी के अनुसार भी ऊर्जा के प्रवाह के साथ अरथिंग भी नितान्त जरूरी है। अन्यथा बेपरवाह ऊर्जा से उत्पन्न उत्तेजना भविष्य में खतरे की घंटी भी बन सकती है। इसीलिए कहा भी गया है कि विद्वत एंव अग्रज जनों के सांनिध्य में रहें। जरूरत पड़ने पर उनकी मदद लें। किंतु यह तथ्य भी याद रखें कि अग्रजों के कंधे मात्र बिजली के खंबे नहीं हैं कि जब मर्जी उनमें अपनी उद्वेलित भावनायें तारों की भांति लाद दें।

हालांकि तटस्थता का तात्पर्य मौन स्वीकृति नहीं है। लेकिन जहां अपरिहार्य हो वहां प्रतिवाद करना भी जरूरी है। अभी कुछ दिन पूर्व सोसल साईट पर आपने संतुलित समरसता भरी बेबाक टिप्पणी चस्पा की है। आपने लिखा है- ‘मैं अपने फेसबुक और अन्य सभी मित्रों से करबद्ध निवेदन करता हूं कि मेरा नाम टैग करके आप अपनी विवादास्पद, सांप्रदायिक और राजनीतिक पोस्ट फेसबुक, मैसेंजर या व्हट्स ऐप पर न डाला कीजिये, मैं बहुत असहज फील कर रहा हूं!’ सद्भावना और समरसता की यह सीख आप जैसे बुद्धिजीवी ही दे सकते हैं।ज्ञात हुआ है कि आपकी इन्द्रधनुष, पहाड़ी धुन, पिंजड़े का पंछी तथा माई ओल्डेज डायरी सहित विभिन्न विधाओं पर आधारित चार पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। दनोसी जी! पिचहतर पार की वय में भी आपका यह विद्योत्साह अभिनन्दनीय है! लेखन के साथ-साथ आप सामाजिक सद्भावना और समरसता के यूं ही सेतु बने रहें! आप शतायु जीएं !

साहित्यकार नरेंद्र कठैत


साहित्यकार आदरणीय नरेंद्र कठैत जी की वाॅल से साभार

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