सिंगोरी न्यूजः मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने गत दिवस जो फैसला लिया है वह कई मायनों में व्यवहारिक तो है ही बेहद अहम भी है। अहम इसलिए कि अब जन कल्याण के जो कार्यक्रम तय होंगे वह सचिवालय के वातानुकूलित कमरांे में लिखे तो जरूर जायेंगे, लेकिन उसमें आम जन की सहभागिता को शामिल किया जाएगा। जनता की राय के बाद ही अब शासनदेशों पर ब्योरोक्रेट की कलम आगे सरकेगी। जाहिर तौर पर जन सहभागिता से बनने वाले इन शासनादेशों में व्यवहारिकता पहले से कहीं अधिक होगी। ऐसे में बेहतरी की उम्मीद भी पहले से अधिक की जानी चाहिए।
राज्य को बने करीब दो दशक का समय बीत गया है। अभिभाजित उत्तर प्रदेश में भी लोक कल्याण को लेकर जो विकास योजनाएं तय की जाती थी उनका सारा गुणाभाग शासन के वातानुकूलित कमरों में तय होता रहा। उसमें ना तो कभी पहाड़ों उतार चढ़ाव को ठीक से समझा गया और नहीं विकराल होते हालातों को। नौकरशाही ने जो महसूस किया उसी तरह के शासनादेश बन गए। अब उसमें व्यवहारिकता हो या ना हो इससे उन्हें कोई मतलब भी नहीं रहता। कारण यही रहा कि मोटा पैसा खर्च होने के बाद भी विकास योजनाओं का जो प्रभाव धरातल पर दिखना चाहिए वह अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं दिखा। प्लानिंग का फेल होने का कारण भी यही रहा।
रोजगार के लिए जो योजनाएं बनी वह रोजगार नहीं दे सकी। पलायन रोकने की मंशा से जो कार्यक्रम हुए वह भी काफी हद तक नाकाम ही रहे। साफ है कि उनमें सचिवालय के बंद कमरों का प्रभाव अधिक दिखा और उसके बनिस्पत व्यवहारिकता अपेक्षाओ ंसे अधिक कम। लेकिन हाल में सूबे के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र्र सिंह रावत ने जो निर्णय लिया है, उसने उन्हें सही मायनों में जनता का नायक बना दिया है। और वह नायक होंगे भी क्यों नहीं। अब शासन के आदेशों मंे आम जन की सहभागिता जो उन्होंने शामिल कर दी है। यानी अब वही होगा जो बात ग्राउंड जीरो यानी पहाड़ के उतंग शिखरों से लेकर गहरी घाटियों से निकल आयेगी। हालातों का सच जानने के बाद ही शासन के आदेश पर कलम चल पायेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत के इस नेक फैसले के परिणाम भी बेहतर होंगे।