नजरियाः कच्ची नौकरी वाले कोरोना वाॅरियर का पक्का जोखिम

सिंगोरी न्यूजः प्रदेश में चाहे आंगनबाड़ी कार्यकत्रियां हों, या फिर आशा कार्यकत्री, होमगार्ड, पीआरडी के जवान या फिर अल्प मानदेय पर काम करने वाले कामगार। ये सब नौकरी तो सरकार की बजाते हैं। लेकिन कभी सोचा, कि इन्हें इस काम के बदले मिलता कितना है। कितना अंतर है एक सरकारी कर्मचारी के वेतन में और इन्हें मिलने वाले मानदेय में। इसमें कई गुना का अंतर हमारी व्यवस्थाओं ने रखा है। इसमें से कइयों को न्यूनतम मजदूरी का भी हिसाब नहीं मिलता। ऐसे में इन कच्चे कामगारों को कोरोना संक्रमण की रोकथाम जैसे काम पर लगाना क्या न्यायोचित होगा। इस पर सोचा जाना चाहिए।
अक्सर यह देखा गया है कि अधिकांश कार्यालयों में काम का जिम्मा कच्चे कामगारों के उपर होता है। खासतौर पर अब जब सब कुछ आॅनलाइन या डाटा बेस के फार्मेट में होने लगा है। पूरा बोझ इन्हीं कामगारों के सिर पर होता है। अब बात करते हैं हाल के महीनों में आई महामारी की। सरकार ने अपने पक्के तंत्र के साथ उन कच्चे कामगारों को भी झांेक दिया है हालांकि यह लाजमी भी है जो सिर्फ दैनिक मजदूरी या फिर मानदेय पर काम करते हैं। हाल में एक आदेश यह जारी हुआ है जिसमें कोविड 19 से निपटने के लिए सीएचसी, पीएचसी और राजकीय एलोपैथिक चिकित्सालय, जिला अस्पताल, बेस अस्पताल समेत अन्य अस्पतालों में फ्लू सेंटर बनाए जाएंगे। आशाओं को अब नई जिम्मेदारी मिलेगी। उन्हें पीपीई किट, ग्लब्स, मास्क और सैनिटाइजर समेत अन्य सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी और कोरोना संदिग्ध मरीजों के कोरोना सैंपल लेंगी। इसके लिए स्वास्थ्य सचिव अमित नेगी की ओर से सभी जिलाधिकारियों और सीएमओ को आदेश जारी हुए हैं।
पूर्व मेें भी स्वास्थ्य महकमे की इस ग्रामीण इकाई को क्वारंटीन सेंटर में तैनात किया गया। कई जगहों से तो ऐसी भी सूचनाएं हैं कि जहां सारी जिम्मेदारी कच्चे कामगार ही निभा रहे हैं। यही हाल सुरक्षा मंे तैनात होमगार्ड या पीआरडी के जवानों का है। अधिकांश मौकों पर इन्हें ही आगे देखा जाता है। महामारी में वर्कलोड हुआ तो इसका बोझ पक्के वालों की जगह कच्चे वालों में अधिक देखा गया। यह बोझ उन पर डाला जा रहा है जो बेहद अल्प मानदेय में अपने परिवार का भरण पोषण भी जैसे तैसे ही करते हैं। महीनों महीने इन्हें इस अल्प मानदेय के लिए भी इंतजार करना पड़ता है। कभी दूध तो कभी राशन पानी, कमरे का किराया या फिर अन्य खर्चे हर बार परेशान करते हैं। जिंदगी मानो उधारी में कट रही है। और सरकारी महकमे के नखरे इतने कि मजाल कि कोई कच्ची नौकरी वाला कभी चूं कर दे। चतुर्थ श्रेणी का नियमित कर्मचारी भी इनके लिए बाॅस से कम नहीं होता। शायद ही कोई ऐसा समय रहा हो जब इन कच्चे कर्मचारियों को उनका मानदेय समय पर मिला हो। ऐसे में कोरोना जैसी महामारी में यह लोग विश्व विजय पर निकले सिंकदर की उस पैदल सेना की तरह हैं जिसे आक्रमण की संगीनों के मुहं पर सबसे पहलीे भेजा जाता है। और फतह होने पर उनके प्रयासों की कहीं गिनती नहीं होती। ऐसे में इस दिशा में विचार कर इनके जीवन सुधार के विषय में सोचा जाना चाहिए। नहीं तो इनके प्राण संकट में डालने उचित नहीं होंगे।

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