कठूली की रामलीलाः ये मंचन नहीं ‘धरोहर’ है

कठूली की रामलीलाः ये मंचन नहीं धरोहर है

इस बार दो नवंबर या कल से शुरू होने वाली कठूली गांव की रामलीला के सात दशक पूरे हो जाएंगे। इन सात दशकों में बाजार की मांग के अनुरूप वाल्मिीकी, तुलसी, कंबन आदि द्वारा लिखित रामायण पर दुनिया भर में तमाम बदलाव व प्रयोग सामने आए हैं। लेकिन कठूली की रामलीला का आज भी वही स्वरूप है जो सत्तर वर्ष पूर्व रहा होगा।

यह रामलीला एक धरोहर की तरह है, जो पुरानों ने नई पीढ़ी को संजोकर रखने के लिए सौंपी हैं। ताकि हर नई पीढ़ी अपने आने वाली पीढ़ियों को उसे पूरी तजबिज के साथ सौंप सकें।

रामलीलाएं तो देश और दुनिया में तमाम होती हैं, लेकिन कठूली की रामलीला अराधना और अनुशासन का अनुपम उदाहरण पेश करती है।
कठूली में रामलीला को रामयज्ञ का सम्मान प्राप्त है। यहां यह मंचन नहीं ईष्ट की अर्चना है। समाज में बेहिसाब फैल रही विकृतियों के वावजूद यहां रामलीला के दौरान ग्रामीणों की सात्विक जीवनशैली अपने आप में एक अनुपम उदाहरण है।

यहां राम लक्ष्मण से लेकर भरत शत्रुघ्न के पात्र की भूमिका में सुकुमार यानी किशोर ही होते हैं। उन्हीं को देखकर नई पीढ़ी सामाजिकता और अनुशासन को बाध्यता नही अपनीं जिम्मेदारी समझने लगती है। तकरीबन दो तीन साल में ही इन भूमिकाओं में नए किशोरों को अवसर मिलता है। यही सिलसिला सात दशकों से चल रहा है। यह सामाजिक पाठशाला का भी शानदार नमूना है।
उम्र दराजों पर वयसंधि काल थोपने के मायने ही समझ से परे हो जाते हैं।

सिनेमाई चक्कलस की तरह यहां प्लेबैक सिंगिंग के लिए यहां कोई स्थान नहीं है। पात्र को अपने डायलॉग से लेकर गायन तक स्वयं करना है। हालांकि इसके लिए लंबे अभ्यास पर भी पात्रों को अपना शत प्रतिशत देना पड़ता है।

सयानेपंथी में कुछ जगहों पर रामलीला में भरत मिलाप पर डांडिया नाच, राजाओं के दरवार में नर्तकी और सूर्पनखा के रोल के लिए पेशेवर डांसर को आयात करने समेत कई तरह के डिस्को डांस टाइप फालतू की सामग्री शामिल करने का भी चलन सा हो गया है। जिनका मर्यादा पुरुषोत्तम की लीला से दूर तक का भी वास्ता नहीं है। नए प्रयोगों का प्रभाव इतना हावी है कि मंच पर दिख रहे पात्रों को सिर्फ आवाजहीन प्राणियों की तरह हाव भाव करने होते हैं। परदे के पीछे से राम की चौपाय गाने वाले व दशानन जैसा अट्टहास देने वाले भले ही अपनी विधा के धुरंधर होते हैं, लेकिन मंच पर दिख रही अदाकारी दो हिस्सों में विभक्त साफ नजर आती है। रामायण व कला के कई जानकार इस तरह के प्रयोगों को खारिज भी करते हैं।
हालांकि पश्चिमी कला, साहित्य व दर्शन के दिग्गज जॉर्ज बर्नाड शॉ कह गए हैं कि जो आपको पंसद आता है जरूरी नहीं कि वह दूसरे को भी पसंद आए। समाजिक मानसिकता दायरा बहुत फैलाव वाला होता है। हर किसी का सोचने, देखने और समझने का अपना अलग नजरिया होता है।

बहरहाल, खेतीबाड़ी के काम से लेकर स्कूली पढ़ाई के दबाव के बीच कठूली की रामलीला में भूमिकाएं करने वाले पात्रों की महीनों के अभ्यास के बाद तैयारी पूरी हो चुकी है। कल से उस अभ्यास के जलवे गांव के मध्य भंडारीधार स्थित रामलीला मंच पर बिखरेंगे।

सात दशक बाद कठूली की रामलीला में यह बेहद अहम बदलाव यह हुआ है कि गत वर्ष से यह आयोजन रात सितारों की जगमग में नहीं दिनकर के यौवन में होती है। सच पूछिए तो यह बदलाव दर्शकों को खींचने में चमत्कारी रहा। और सोने पर सुहागा यह कि कठूली गांव के हर गांव (बता दें तीन ग्राम पंचायतों वाले कठूली गांव में कई छोटे गांव शामिल हैं) की अलग अलग महिला मंगलदलों की भी एक प्रस्तुति रखी गई है। इस तरह का अभिनव प्रयोग करने वाले रामलीला कमेटी के अध्यक्ष नरेंद्र सिंह नेगी समेत सभी सहयोगियों का साधुवाद।

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