भूल जाओ गैरसैंण, फिलहाल नहीं बनेगी बात

विपिन कण्डारी
गैरसैंण वह नाम है जिसे आप धाम भी कह सकते हैं। खास तौर पर तब आप लोकतंत्र में विश्वास करते हैं। संविधान को ही सबसे बड़ी धार्मिक किताब मानते हैं, और विधान भवनों और संसद को लोकतंत्र का मंदिर समझते हैं। जिसमें जनभावनाओं और लोक कल्याण को सर्वोपरि रखा जाता रहा है। उत्तराखण्ड राज्य की भावना के केंद्र बिन्दु चन्द्र नगर गैरसैंण का स्थान इससे कम नहीं हो सकता। उत्तराखण्ड राज्य की परिकल्पना तब तक साकार रूप में अस्तित्व में नहीं आ पायेगी जब तक गैरसैंण की अनदेखी होती रहेगी। उत्तराखण्ड में सरकारें चाहे किसी भी सियासी विचारधारा की रही हो, मजबूरी बस ही गैरसैण की चर्चा करने की जहमत उठाती रही। गैरसैंण भले ही चुनावी मुद्दा न बन सका हो, लेकिन उसकी तासीर पहाड़ वासियों के मन में कभी ठण्डी नहीं हो सकती। इसलिए गाहे.बगाहे ही सही विधायिका झूठे मन से ही सही गैरसैंण की तरफ रुख करती रहती है।


3 मार्च से गैरसैंण में बजटसत्र आयोजित किया गया। पहले दिन राज्यपाल का अभिभाषण हुआ और 4 मार्च को मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने बतौर वित्तमंत्री सदन के पटल पर राज्य के आगामी वित्तीय वर्ष का बजट रखा। इस बीच चन्द्रनगर गैरसैंण भराड़ीसैण में वीवीआईपीज की भीड़ बढ़ गई। दूसरा राज्य में आन्दोलित कर्मचारी वर्ग विरोध प्रदर्शन में जुटा रहा। कुछ सरकारी अफसर जो गैरसैंण पहंुचेए वह यह भी कहते रहे कि वहां अभी सुविधायें नहीं हैंए जिसके कारण गैरसैंण में परेशानियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन सवाल उठता है कि सुविधायें जुटाना किसकी जिम्मेदारी है। क्या किसी कर्मचारी संगठन ने अपने किसी आन्दोलन में गैरसैंण में सुविधाएं जुटाने को लेकन सरकार से चर्चा करना मुनासिब समझा। यह पूर्ण तरह से राज्यहित का विषय हैए इस पर हर किसी दबाव गुट को गैरसैंण के विकास के मुद्दे पर सरकार से बात करनी चाहिए। वह तब बहुत जरूरी हो जाता है जब कि कर्मचारी अधिकारी गैरसैंण में अकसर सुविधाओं का टोटा होना बताते रहते हैं। कोई बतायेगा कि क्या अस्थाई राजधानी देहरादून में वे सारी सविधायें पहले से मुहैया थीए जो आज यहां पर देखने और भोगने को मिल रही हैं। राज्य बने 19 साल पूरे हो चुके हैं और तब से देहरादून में न जाने कितनी सुविधाओं को विस्तार दिया जा चुका है। नौकरशाही नेताओं से मनमर्जी के हिसाब से देहरादून में सरकारी ढांचागत विकास करवा रहे हैं। नये.नये प्लान बन रहे हैंए पर किसी ने आज तक गैरसैंण को लेकर किसी सरकार को कोई सुझाव दिया। सियासी नेतृत्व इतना गंभीर कभी दिखाई नहीं दिया कि उसने बतौर राजधानी गैरसैंण के विकास को लेकर अफरशाही से कोई चर्चा की होए कोई सेमिनार कराया होए जिसमें लोगों के सुझाव भी शामिल किये जाते।

गैरसैंण सत्र के दौरान अपना विरोध दर्ज करते लोग

आज अगर दो दशक बाद यह बात सामने आती है कि गैरसैंण में सुविधायें नही हैंए ंतो यह परेशानी का सवाल नहीं है बल्कि शर्म का विषय है। निःसंदेह यह बात सही है कि मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा पहाड़ो की विषम भौगोलिक परिस्थितियां हर नजरिये से कठिन होती हैं। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि पहाड़ और गैरसैंण की अनदेखी की जाये। ऐसे लोग गैरसैंण को परेशानी और समस्याओं की राजधानी के तौर पर दुष्प्रचारित करते रहें हैं। पिछली बार सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने गैरसैंण में विधानसभा सत्र आयोजित करने में इसलिए दिलचस्पी नहीं दिखायी कि विधायकों को वहां पर ठण्ड लगेगी। यह बात और तर्क पहाड़वासियों के गले नहीं उतरे। खास कर ऐसे बयान तब ज्यादा हास्यास्पद हो जाते हैंए जब पहाड़ में जन्में पले बढ़े अधिकारीए विधायक मंत्री और मुख्यमंत्री ऐसे तर्क दें।

गैरसैण विधान सभा सत्र में प्रतिभाग को जाते सूबे की राज्यपाल बेबी रानी मौर्य, सीएम त्रिवेंद्र रावत

चुनाव के दौरान बर्फ से ढके दुरूह क्षेत्रों के ग्रामीण इलाकों में नेता एक.एक वोट मांगने के लिए दो.तीन महीने धार.खाल डांडे.कांठे नाप देते हैं। जीतने के बाद गैरसैंण जैसी प्राकृतिक रूप से अलौकिक अनुभूति देने वाली भूमि उनके लिए परेशानी बन जाती है। इससे प्रदेश के ऐसे कर्णधार जनप्रतिनिधियों की मानसिक स्थिति और दर्शनहीनता व वैचारिक अपंगता का बोध होता है। गैरसैंण को लेकर जो लोग अव्यवस्थाओं और असुविधाओं बात करते हैं उन्हें अपने पद और जिम्मेदारी से स्वयं मुक्त हो जाना चाहिए। क्योंकि जिम्मेदार सरकार और उसका तंत्र पहाड़ को लेकर ऐसी धारणा बनाने का काम करता रहा हैए जो नहीं चाहता कि कभी पहाड़ के किसी क्षेत्र को विकास और सत्ता का केंद्र स्थल बनाया जाये। बहरहाल सत्ता के पर्दे के पीछे अभी तक तो यही खेल चलता रहा है, लेकिन सवाल यह है कि आखिर कब तक ऐसा चलता रहेगा। अब पहाड़ के लोगों का ये अन्तहीन दिखने वाला इन्तजार जल्द खत्म होना चाहिए।

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