चौबट्टाखालः सरकार संवेदनशील होती, तो कई जिंदगियां बच जाती

पौड़ी। मल्ली वीणा, देवकुंडई, किमगडीगाड, ड्वीला एकेश्वर, पांथर, भरतपुर, जलपाणी के अलावा और भी पौड़ी जनपद के अंतर्गत आने वाले चौबट्टाखाल क्षेत्र के उन गांवों के नाम हैं जिन्होंने पहाड़ के गांवों में रहने की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। इस क्षेत्र के गांवों ने वन्य जीवों के संघर्ष में कभी अपनों को खोया तो कभी हमले में किसी ने बमुश्किल ही अपनी जिंदगी बचा सकी। हालांकि गुलदार के खूनीं पंजों को मोड़ने वाली यहां की एक बालिका के नाम वीरता का राष्टीय पुरस्कार भी है। साहस यहां लोगों में किसी भी स्तर पर कम नहीं है, लेकिन क्या करें गुलदार कभी साहस को चुनौती नहीं देता, वह हमेशा घात लगाकर हमला करता है। और ज्यादातर मामलों मंे खूनीं पंजे ही हावी रहते हैं।

ग्रामीणों की जान पर हर वक्त मंडराते इसी खतरे को देखते हुए कांग्रेस नेता राजपाल बिष्ट ने 28 सितंबर 2014 को तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत उत्तराखंड सरकार को एक ज्ञापन सौंपा था। जिसमें संपूर्ण एकेश्वर, चौैबट्टाखाल विधानसभा क्षेत्र को बाघ रहित क्षेत्र घोषित करने की मांग की गई थी। इस पर मुख्यमंत्री ने प्रमुख सचिव वन को जीरो टाइगर जोन {Zero Tiger Zone) कंसेप्ट पर चर्चा के लिए लिखा था। लेकिन इसे दुर्भाग्य कहेंगे कि कुछ समय बाद निजाम बदला और क्षेत्र की बदनसीबी अपनी जगह रह गई।

राजपाल बिष्ट कहते हैं कि तात्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत जी के दिए उन आदेशों को आज 7 साल बीत गए हैं। इस दौरान सरकार तो बदल गई पर स्थितियां नहीं बदली। आज भी जो लोग पहाड़ों से पलायन नहीं कर पाए हैं वह आदमखोर वन्यजीवों का निवाला अपने घर आंगन में ही बन जा रहे हैं। राजपाल बिष्ट अपने उस ज्ञापन को दिखाते हैं और सीएम हरीश जी के जारी निर्देशों की बात करते हुए कहते हैं कि यदि क्षेत्र की उस मांग पर कार्रवाई हो जाती तो उनके क्षेत्र में कई लोगों की जान बच जाती। गत दिवस फिर उस क्षेत्र में 55 वर्षीय महिला को गुलदार ने अपना शिकार बना लिया। अगर बहुत पीछे ना भी जाए और गुजरे सात सालों की ही बात करें तो खूनी पंजों के घातिया हमलों में यहां किसी गांव में गोद सूनी हुई तो कहीं सिंदूर उजड़ गया, और कहीं बच्चों के सिर से मां का आंचल ही छिन गया है। कौन जिम्मेदार है इसके लिए। आंगन में चहक रहे नौनिहालों की बात हो या खेत खलियानों में काम रही माताएं बहनों की, आदमखोर के निवाले के लिए कब किसका नंबर आ जाए यहां कोई पता नहीं होता।

जाहिर तौर पर डर डर कर ही सही ग्रामीणों ने अपनी आजीविका व रोजमर्रा के काम तो करने ही हैं। तभी जाकर तो विषमताओं भरे ग्रामीण परिवेश में बसर हो पाएगी। जो लोग सक्षम होते हैं वो जिंदगी के मायने समझाते हुए गांव पलायन कर जाते हैं। लेकिन जो लोग इतने सक्षम नहीं होते वन्य जीवों के खौफ का साया चैबीसों घंटे उन पर मंडराता रहता है। काश! जीरो टाइगर जोन की मांग पर कार्रवाई हो जाती तो आज कई लोग यहां अपनों के विछोह में तिल तिल कर न जी रहे होते।

राजपाल कहते हैं कि यहां सरकार हवा में तैर रही है। जन सरोकारों से किसी को कोई लेना देना नहीं है। हम धरातल पर काम करते हैं, हर वक्त लोगों के बीच रहते हैं। तब यहां का दर्द समझ में आता है। जो मांग हमने सात साल पहले उठाई और उस पर बाकायदा प्रक्रिया भी आगे बढ़ाई, भाजपा सरकार के राज में चौट्टाखाल के गांवों के ग्रामीणों का वह सुरक्षा कवच भी ना जाने कहां खो गया। वह कहते हैं कि सरकार की संवेदनहीनता का खामियाजा भोली भाली जनता को भुगतना पड़ता है।

पोखड़ा के पूर्व ब्लाक प्रमुख सुरेंद्र रावत कहते हैं कि गुलदार के भय ही यहां पलायन का सबसे बड़ा कारण है। बुनियादी सुविधाएं भी यहां मय्यसर नहीं हैं।

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