टूरिस्ट पाॅलिटिक्सः जनाब, एक उम्र खपानी पड़ती है ‘सूबे’ को समझने के लिए

मनीष सिसौदिया को अब तक मैं हिंदुस्तान के उन चुनिंदा राजनेताओं में शामिल करता था जिनका कोई मॉरल है और जो जनहित की सियासत करते हैं, पर आज उनके देहरादून दौरे के बाद उनके लिए मेरा ये सम्मान खत्म हो गया। सिसौदिया की एक हरकत से साफ हो गया कि उनकी राजनीति का आधार भी प्रपंच है। वो अपने सियासी नफे के लिए जनता को गुमराह कर रहे हैं। दून दौरे के दौरान उन्होंने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से पांच उपलब्धियां पूछीं, कैबिनेट मंत्री शासकीय प्रवक्ता मदन कौशिक को विकास के नाम पर ललकारा, जनता को दिल्ली सरकार की उपलब्धियां गिनाईं, वहां तक तो सब ठीक था और सियासत के दायरे में था। उनका असली एजेंडा तब सामने आया, जब दिल्ली लौटते वक्त अचानक वो जॉलीग्रांट एयरपोर्ट के नजदीक स्थित जीवनवाला के सरकारी प्राइमरी स्कूल में पहुंच गए। वहां किसी स्थानीय व्यक्ति से बातचीत किये बगैर उन्होंने स्कूल में व्याप्त अव्यवस्थाओं को पोस्टमार्टम शुरू कर दिया। उन्होंने दावा किया कि जीवनवाला स्कूल का भवन जर्जर है। स्कूल परिसर में खड़े बूढ़े दरख्त छात्रों के जीवन के लिए खतरनाक हैं। फिर उन्होंने अपने दिल्ली के स्कूलों की सुनहरी तश्वीर जनता के सामने रखी। सिसौदिया के बयान पर आधारित ये खबर मीडिया की सुर्खियां बन गई। मीडिया की भीड़ भी उनके साथ मौजूद थी। दरअसल, ये कोई मामूली स्कूल नहीं है, बल्कि मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की विधानसभा क्षेत्र डोईवाला का एक सरकारी प्राइमरी स्कूल है। जाहिर है सिसौदिया मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र के विधानसभा क्षेत्र के स्कूल की तुलना दिल्ली के सरकारी स्कूल करना चाहते थे। हो-हल्ला मचाने के बाद सिसौदिया एयरपोर्ट में विमान में बैठे भी नहीं होंगे कि जीवनवाला प्राइमरी स्कूल में बच्चों के जीवन को खतरा बताने के उनके दावे की हवा निकल गई। स्थानीय प्रधानपति सबूतों के साथ सामने आए और उन्होंने दावा किया कि त्रिवेंद्र सरकार शिक्षा व्यवस्था में सुधार के गंभीर प्रयास कर रही है। प्राइमरी स्कूल जीवनवाला के जीर्णोद्धार के लिए त्रिवेंद्र सरकार पहले ही 4.5 लाख रुपए स्वीकृत करने के साथ ही परिसर में खड़े बूढ़े दरख्तों को काटने की परमिशन दे चुकी है, जिस पर काम चल रहा है। सिसौदिया आम नेता नहीं बल्कि दिल्ली के डिप्टी सीएम हैं। अधूरी जानकारी और तथ्यों को समझे बगैर उन्हें उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था को कठघरे में खड़ा नहीं करना चाहिए था। उनका उत्तराखंड की राजनीति में स्वागत है लेकिन बतौर श्टूरिस्ट पॉलिटिशियनश् नहीं। क्योंकि दिल्ली और उत्तराखंड प्रदेश की आपस में तुलना का कोई आधार है न औचित्य। उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियां विषम और विकट हैं जबकि दिल्ली की सरल और सुलभ। आप चाहें तो कुछ ही दिनों में दिल्ली को नाप सकते हो पर उत्तराखंड को नापने में उम्र खपानी पड़ जाएगी। उत्तराखंड की विषम परिस्थितियां जानने को सिसौदिया को पहाड़ी जिलों का रुख करना होगा। सच तो ये है कि किसी भी प्रदेश में राजनीति करने से पहले वहां की समझ होनी जरूरी है। आम आदमी का तो यहां के पृथक राज्य आन्दोलन से तक कोई सरोकार नहीं रहा। होता भी कैसे, उस समय श्आपश् का जन्म ही नहीं हुआ था। इसलिये भी जरूरी है कि आप के नेता पहले उत्तराखंड और यहां की जनता का मिजाज समझें, नजाकत भापें और यहां जनसरोकार और जनहित के लिये संघर्ष करें। तभी तो सियासी जमीन तैयार हो सकेगी। वैसे भी सोशल मीडिया के जरिये श्हिट एंड रनश् की राजनीति तो आम आदमी पार्टी ने पंजाब और गोआ में भी खूब की। जब विधानसभा चुनाव में वहां सफलता नहीं मिली तो आप इन दोनों राज्यों की जनता को उन्हीं के हाल पर छोड़ आई। आप के नेताओं ने गोवा और पंजाब में अपना संगठन तक दुरस्त नहीं किया। साफ है कि आप अवसरवाद की सियासत करती है, जनसरोकार से उसका कोई लेना-देना नहीं है।
वरिष्ट पत्रकार दीपक फस्र्वाण जी की कलम से।

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