राठ गौरव, राष्ट्र गौरवः वीर चंद्र सिंह गढ़वाली

सिंगोरी न्यूजः जनपद पौड़ी के विकास खंड पाबौ व थलीसैण का क्षेत्र राठ नाम से प्रसिद्ध है। इसी राठ की मिट्टी में आज ही दिन यानी 25 दिसंबर साल 1891 को जन्मे थे वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली। उनके पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। साहस और शौर्य के प्रतीक राठ के इस चंद्र सिंह ने राठ को तो पहचान दी है गढ़वाली को भी एक बड़े फलक पर पहचान दिलाई। आज उनके पैतृक गांव पीठसैण का नाम पूरे देश में फर्क से लिया जाता है।

वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के साहस की कहानी आज किसी से छिपी नहीं है। जानकारी के मुताबिक 3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती हुए। तब प्रथम विश्वयुद्ध का दौर चल रहा था। 1 अगस्त 1915 को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेज अफसरों ने उन्हें फ्रांस भेज दिया। 1 फरवरी 1916 को वह वापस लैंसडौन आए। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 हुए मेसोपोटामिया युद्ध और 1918 में हुई बगदाद की लड़ाई में उनकी दिलेरी के चर्चे भी खूब हुए।

लेकिन अंग्रेजों की नीति से कतई खुश नहीं थे। उनके भीतर का वीर बार बार उन्हें स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करता रहा। सेना छोड़ने का मन बना चुके चन्द्रसिंह इसी दौरान महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये।

सेना में कुछ समय पश्चात इन्हें 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। अंगे्रजांे ने लालच देने के लिए इनकी तरक्की भी की। लेकिन आर्य समाज के कार्यकर्ताओं से उनका मिलना जुलना अंग्रेजों को अखर रहा था।

बात 1930 की थी जब पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम को चिनगारियां सुलग रही थी। विरोध दबने का नाम नहीं ले रहा था। इसी विरोध को दबाने के लिए गढ़वाली को ं पेशावर भेजा गया। 23 अपै्रल को उन्हे आंदोलनरत जनता पर हमला करने के आदेश दिए गए। लेकिन राठ की मिटटी से उपजे इस जांबाज ने निहत्थी जनता पर गोली चलाने से साफ इंकार कर दिया।

अंग्रेजों की आज्ञा न मानने के कारण इन सैनिकों पर मुकदमा चला। गढ़वाली को अंग्रेजों का आदेश ना मानने पर फांसी की सजा सुनाई गई। लेकिन अदालती लड़ाई में मृत्युदंड की सजा कैद में बदली गई। गढ़वाली की सारी संपति जब्त अंग्रेजी आक्रांताओं ने जब्त कर ली। और उन्हें ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया। लेकिन गढ़वाल में घुसने के प्रतिबंध जारी रहे। वह भारत छोड़ों आंदोलन में उनकी सक्रियता के कारण फिर उन्हें 3 तीन साल के लिये जेेल भेजा गया। और 1945 में फिर बाहर आ गए। और आजादी के सिपाही बनकर देश के आजाद होने के तक लड़ते रहे। वाकई वीर चंद्र सिह गढ़वाली वीरता की वह मशाल जला गए जिसकी प्रेरणा से कई पीढ़ियां मां भारती के चरणों में अपना सर्वस्व न्यौछावर करती रहेंगी।

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