एक बूँद
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?
देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।
लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।
- राष्ट्रकवि अयोध्या सिंह उपाध्याय श्रिऔध की ये कविता हममें से कईयों ने अपने बचपन में अवश्य पढ़ी होगी !
अपने अंतस में गहरा अध्यात्म लिए ये कविता तब बिलकुल समझ नहीं आती थी और सच कहें तो याद भी मुश्किल से होती थी ! क्योंकि ये लयहीन ,रसहीन कविता हम बच्चों के मतलब की चीज नहीं थी ! जो कविता गाई जा सकती थी उसे हम मजे से याद करते थे क्योंकि कक्षा में शोरगुल करते हुए जोर शोर से कविता याद करना गांव भर को बता देता था कि स्कूल में पढाई बहुत ही उच्च स्तर की हो रही है !!!!!!!खैर ………….
आज फिर इस कविता पर अचानक ध्यान चला गया !
एक रुबूंद जो बूंदों से ही निर्मित बादल की गोद से अलग होकर मानों खुद की खोज में खुद को मिटाने निकल पड़ी ! हिम्मत की बात है ! उसने बादल का घर छोड़ा ! उसने बादलों की दुनियां से विद्रोह कर दिया ! वो बादलों का संसार जिसमें असंख्य बूंदें रोज जन्मती और मरती हैं ! कई बूंदों ने उसे रोका भी होगा ! अभी रूक जाओ ! जैसे सब बूंदें जाएँगी वैसे तुम भी जाना ! सभी जा रहे हैं धीरे धीरे ! सबकी मंजिल भी वही है जिसकी खोज में तुम जाना चाहती हो ! तो थोडा रूक जाओ ! हमारा संसार जब हमें गिराएगा तब जायेंगे !हजारों हजार तर्क वितर्कों को नकार कर ,संगी साथियों से भरे खुबसूरत आकाश में तैरते बादलों के संसार को छोड़ना कोई आसान निर्णय तो न रहा होगा ! लेकिन दृढ निश्चयी वो रुबूँद किसी अलौकिक प्रेरणा से बंधी निकल पडती है उस जहाँ की खोज में जहाँ उसके संसार की असंख्य रुबूंदें गयी लेकिन वो रुजहाँ कैसा है बताने के लिए कोई न लौटी !!!!!!!!!!!!!!
ध्यान देने योग्य प्रसंग है पहले ही पैरे की अंतिम पंक्ति !!!
अहा क्यों घर छोडकर मैं यों कढ़ी …………………………………
घर छोड़ना क्षणिक वैराग्य है ! अक्सर लोग निकल पड़ते हैं घर छोडकर ! लेकिन असली परीक्षा है अपने निर्णय पर टिके रहना !!!
मार्ग की कठिनाईयां , अज्ञात की खोज में हमेशा ही बाधा बनती है ! भविष्य की अनिश्चितन्ता अक्सर अधूरे संकल्पों की जननी बन जाती है ! और जो लौटने के विकल्प छोडकर निकलते हैं वो घबरा कर लौट भी जाते हैं !!!!!
लेकिन वो रुबूँद जो सारे आशियाने जला के निकली है लौटने की सारी सम्भावनाओं को खत्म करके निकली है वो भले ही कुछ क्षण के लिए अपने निर्णय पर पछताई हो ,घबराई हो लेकिन अंततः ईश्वर के हाथों में अपना अस्तित्व छोड़ देती है !और उसी पल जिस पल उसने अपना संचालन ईश्वर को सौंपा ! उसे हवा ने अपनी गोद में बिठाया और अथाह समुन्द्र में एक छोटी सीप के खुले मुंह में छोड़ दिया !!!!!!!!!!!!!!
लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।
वो रुबूंद जिसे कालचक्र के साथ माटी में मिल जाना था ! अथवा तो किसी जल स्रोत में मिलकर नई बूंदों में बदल जाना था ! वो खुबसूरत मोती बनने के लिए चुन ली गयी थी !रुबूंद को तो मिटना ही था ! लेकिन ये मिटना ही वास्तविक मिटना है जिसमें रुजग को याद रहे कि ये रुबूंद थी और रुबूंद अनजान रहे !
उसे न रुबूंद की स्मृति हो न रुमोती का आभास !!!
जो घर फूंके आपनौ ,चले हमारे साथ !
ब्लागर अमरावती की वाॅल से साभार!